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एक बार वसंत ऋतु में क्रीड़ा करने वन में गया। वहां वह जब अपनी सात सौ रानियों के साथ क्रीड़ा कर रहा था तब, विद्युद्दष्ट नाम का देवता - जो वज्रायुद्ध का पूर्वजन्म का वैरी दमितारि था और जो अनेक भवों में भटककर देव हुआ था - उधर से निकला। वज्रायुद्ध को देखकर उसे अपने पूर्व भव का वैर याद आया। वह एक बहुत बड़ा पर्वत उठा लाया और उसे उसने वज्रायुद्ध पर डाल दिया। वज्रायुद्ध को भी उसने नागपास से बांध
लिया।
- वज्रऋषभनाराच संहनन के धारी वज्रायुद्ध ने उस पर्वत के टुकड़े कर डाले, नागपाश को छिन्नभिन्न कर दिया और सुखपूर्वक अपनी रानियों सहित बाहर आया। विद्युद्दष्ट अपनी शक्ति को तुच्छ समझ वहां से चला गया। उसी समय ईशानेन्द्र नंदीश्वरद्वीप जाते हुए उधर से आ निकला और वज्रायुद्ध के जीव भावी तीर्थंकर की पूजाकर चला गया। वज्रायुद्ध अपने. परिवार सहित नगर में आया।
राजा क्षेमंकर को लौकांतिक देवों ने आकर दीक्षा लेने की सूचना की। उन्होंने वज्रायुद्ध को राज्य देकर दीक्षा ली और तप से घातिया कर्मों का नाश कर वे तीर्थंकर हुए।
वज्रायुद्ध के अस्त्रागार में चक्ररत्न उत्पन्न हुआ। फिर दूसरे तेरह रत्न भी क्रमशः उत्पन्न हुए। उसने छ: खंड पृथ्वी को जीता और फिर अपने पुत्र को युवराज पद पर स्थापित कर सुख से राज्य करने लगा।
एक बार वे राजसभा में बैठे थे तब एक विद्याधर 'बचाओ, बचाओ' पुकारता हुआ उनके चरणों में आ गिरा। वज्रायुद्ध ने उसको अभय दिया। उसी समय वहां तलवार लिये हुए एक देवी और खांडा हाथ में लिये हुए एक देव उसके पीछे आये। देव बोला – 'हे नृप! इस दुष्ट को हमें सोंपिये ताकि हम इसे इसके पापों का दंड दें। इसने विद्या साधती हुई मेरी इस पुत्री को आकाश में उठा ले जाकर घोर अपराध किया है।' वज्रायुद्ध ने उन्हें उनके पूर्वजन्म की बातें बतायी। इससे उन्होंने वैरभाव को छोड़ दिया और मुनि के पास दीक्षा ले ली।
: श्री शांतिनाथ चरित्र : 120 :