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से पाणिग्रहण किया था उसी तरह, उसके बाद और लोग भी पाणिग्रहण करने लगे। यह प्रवृत्ति आज भी चल रही है। प्रभु के विवाह के बाद दूसरे की कन्या के साथ व्याह करने का रिवाज हुआ। चूडा, उपनयन आदि व्यवहार भी उसी समय से चले। यद्यपि ये सारी क्रियाएँ सावध हैं तथापि समय को देखकर, लोगों के कल्याणार्थ प्रभु ने इनका व्यवहार चलाया। प्रभु ने जो कलाएँ चलायी, उनका शनैः शनैः विकास हुआ। अर्वाचीन काल के बुद्धि-कुशल लोगों ने उनके शास्त्र बनाये। उनसे लोग आज तक लाभ उठा रहे हैं।
प्रभु ने चार प्रकार के कुल बनाये। उनके नाम ये थे; १. उग्र, २. भोग, ३. राजन्य, ४. क्षत्री।
१. नगर की रक्षा का काम यानी सिपाहीगिरी करनेवालों को एवं
चोर लुटेरे आदि प्रजापीड़क लोगों को दंड देनेवालों का जो.
समूह था उस समूह के लोग उग्रकुलवाले कहलाते थे। २. जो लोग मंत्री का कार्य करते थे वे भोगकुलवाले कहलाते थे। ३. जो लोग प्रभु के समयवयस्क थे और प्रभु की सेवा में हर समय
रहते थे वे राजन्यकुलवाले कहलाते थे। ४. बाकी के जो लोग थे वे सभी क्षत्री कहलाते थे। चार प्रकार की
नीतियाँ भी प्रभु ने नियत की थी। वें थीं शाम, दाम, दंड और भेद। जिस समय जिसकी आवश्यकता होती थी, उस समय उसीसे काम लिया जाता था। प्रभु ने सबको विवेक सिखलाया
था, त्याज्य और ग्राह्य का ज्ञान दिया था।
एक बार वसंत आया तब प्रभु परिजनों के आग्रह से नंदनोद्यान में क्रीड़ा करने गये। नगर के लोग जब अनेक प्रकार की क्रीड़ा कर रहे थे तब प्रभु एक तरफ बैठे हुए देख रहे थे, देखते ही देखते उनको विचार आया कि अन्यत्र भी कहीं ऐसी सुखसमृद्धि होगी? क्षण भर के बाद उन्होंने अपने पूर्व भव के समस्त सुखोपभोग और फिर उसके बाद होनेवाले जन्म-मरण आदि के दुःख देखे। विचार करते हुए अनेक अंतःकरण में वैराग्य भावना उदित
: श्री आदिनाथ चरित्र : 24 :