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४. लक्ष्मीदेवी- कमल के समान आँखोंवाली, कमल में निवास करनेवाली, दिग्गजेन्द्र अपनी सूँडों में कलश उठाकर जिसके मस्तक पर डालते हैं, ऐसी शोभायुक्त होती है।
५. पुष्पमाला - देव वृक्षो के पुष्पों से गूँथी हुई और धनुष के समान लम्बी होती है।
६. चंद्रमंडल-अपने ही तीर्थंकरों की माताओं को उनके ही मुख की भ्रान्ति करानेवाला, आनंद का कारण रूप और कांति के समूह से दिशाओं को प्रकाशित किये हुए होता है।
७. सूर्य- रात में भी दिन का भ्रम करानेवाला, सारे अंधकार का नाश करनेवाला, और विस्तृत होती हुई कांतिवाला होता है। महाध्वज-चपल कानों से जैसे हाथी सुशोभित होता है वैसे ही घूघरियों की पंक्ति के भारवाला और चलायमान पताका से शोभायुक्त होता है।
६. स्वर्ण कलश - विकसित कमलों से इसका मुख भाग अर्चित होता है, यह समुद्र-मंथन के बाद सुधाकुंभ - अमृत के कलश के समान और जल से परिपूर्ण होता है। -
१०. पंद्म सरोवर-इसमें अनेक विकसित कमल होते है, भ्रमर उनपर गुंजार करते रहते हैं।
११. क्षीर समुद्र - यह पृथ्वी में फैली हुई शरद ऋतु के मेघ की लीला को चुरानेवाला और उत्ताल तरंगो के समूह से चित्त को आनंद देनेवाला होता है।
१२. विमानं - यह अत्यंत कांतिवाला होता है। ऐसा जान पड़ता है कि, जब भगवान का जीव देवयोनि में था तब वह उसी में रहा था। इसलिए पूर्व स्नेह का स्मरण कर वह आया है। और तीर्थंकर का जीव नरक से आता है तो माता विमान के स्थान पर भवन देखती है । .
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१३. रत्नपुंज - यह ऐसा मालूम होता है कि, मानों किसी कारण से तारे एकत्र हो गये हैं; या निर्मल कांति एक जगह जमा हो गयी है। १४. निर्धूम अग्नि- इसमें धुआँ नहीं होता। यह ऐसा प्रकाशित मालूम होता : श्री तीर्थंकर चरित्र : 307 :