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आने पर चौदह स्वप्न आये। उसी समय विपुलवाहन का जीव अपनी देवआयु पूर्ण कर रानी सेनादेवी के गर्भ में आया। उस समय क्षण भर के लिए नारकियों को भी सुख हुआ।
स्वप्न देखते ही देवी जागृत हुई और उठकर राजा के पास गयी। राजा को स्वप्न सुनाये। राजा ने कहा – 'हे देवी! इन स्वप्नों के प्रभाव से तुम्हारे एक ऐसा पुत्र होगा जिसकी तीन लोक पूजा करेंगे।'
इंद्रों का आसन कांपा। उन्होंने देवों सहित नंदीवर द्वीप जाकर च्यवनकल्याणक किया।
स्वप्न का अर्थ सुनकर महिषी को इतना हर्ष हुआ, जितना हर्ष मेघ की गर्जना सुनकर मयूरी को होता है। अवशेष रात उन्होंने जागकर. ही बितायी।
जब नौ महीने और साढ़ेसात दिन व्यतीत हुए तब सेनादेवी ने जरायु और रुधिर आदि दोषों से वर्जित पुत्र को जन्म दिया। उनका चिह्न अञ्च का था। उनका वर्ण स्वर्ण के समान था। उस दिन मार्गशीर्ष शुल्का चतुर्दशी का दिन था, चंद्रमा मृगशिर नक्षत्र में आया था। जन्म होते ही तीन लोक में अंधकार को नाश करनेवाला प्रकाश हुआ। नारकी जीवों को भी क्षण भर के लिए सुख हुआ। सारे ग्रह उच्च स्थान पर आये। सारी दिशायें प्रसन्न हो गयी। सुखकर मंद पवन बहने लगा, लोग. क्रीडा करने लगे। सुगंधित जल की वृष्टि हुई, आकाश में दुंदुभि बजी, पवन ने रज दूर की और पृथ्वी ने शांति पायी।
छप्पन कुमारियां ने आकर सूतिका कर्म किया। इंद्रों के आसन कांपे। उन्होंने आकर प्रभु का जन्मकल्याणक किया।
प्रातः जितारी राजा ने बड़ा भारी उत्सव किया। सारा नगर राजभवन की तरह मंगल-गान और आनंदोल्लास से परिपूर्ण हो गया। प्रभु जब गर्भ में थे तब शंबा (फलि, मूंग, मोंठ, चंबले का धान्य) बहुत हुआ था इसलिए उनका नाम संभवनाथ रखा था।
प्रभु का बाल्यकाल समाप्त हुआ। युवा होने पर ब्याह हुआ। पंद्रह लाख पूर्व बीतने के बाद जितारी राजा ने दीक्षा ली और प्रभु का राज्याभिषेक
: श्री संभवनाथ चरित्र: 64 :