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आज्ञा दे दी कि, कोठार में जितना अनाज है सभी देश के भूखे लोगों में बांटा जाय, मुनियों को प्रासुक आहार पानी मिले इसकी व्यवस्था हो और जो श्रावक सर्वथा निर्धन हैं, उन्हें राज्य के रसोड़े में भोजन कराया जाय।
इतना ही नहीं मुनियों को, एषणीय, कल्पनीय और प्रासुक आहार अपने हाथों से देने और अन्यान्य श्रावकों को, अपने सामने भोजन कराकर, संतोष-लाभ कराने लगा।
इस भांति जब तक दुष्काल रहा तब तक वह सारे देश की और खास कर समस्त संघ की भली प्रकार से सेवा करता और उसे संतोष देता रहा। इससे उसने तीर्थंकर नामकर्म बांधा।
एक बार वह छतपर बैठा हुआ था। संध्या का समय था। आकाश में बदली छायी हुई थी। देखते ही देखते जोर की हवा चली और बदली छिन्न भिन्न हो गयी।
उसने सोचा, इस बदली की तरह संसार की सारी वस्तुएँ छिन्न भिन्न हो जायगी, मौत हर घड़ी सिर पर सवार रहती है, वह न जाने किस समय धर दबायगी। वह नहीं आती है तब तक आत्मकल्याण कर लेना ही श्रेष्ठ है।
दूसरे दिन विपुलवाहन ने बहुत बड़ा दरबार किया, उसमें अपने पुत्र को राज्य सिंहासन पर बिठाया और फिर स्वयंप्रभसूरि के पास जाकर दीक्षा ले ली। . ___.. राजा मुनि ने राज्य की भांति ही अनेक प्रकार के उपसर्ग सहते हुए भी संयम का पालन किया और अंत में वे अनशन कर, आयु पूर्ण कर, आनत नामके नवें देवलोक में उत्पन्न हुए। यह दूसरा भव हुआ। तृतीय भव :. इसी जंबूद्वीप के पूर्व भरतार्द्ध में श्रावस्ती नाम का शहर था।
उसमें जितारी नाम का राजा राज्य करता था। उसमें नाम के अनुसार गुण भी थे। उसके सेनादेवी नाम की पटरानी थी। वह इतनी गुणवती थी कि, लोग उनको जितारी का सेनापति कहा करते थे। इसी रानी को फाल्गुन मास की अष्टमी के दिन, मृगशिर नक्षत्र में चंद्रमा का योग
: श्री तीर्थंकर चरित्र : 63 :