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३. श्री संभवनाथ चरित्र
विधभव्यजनाराम-कुल्यातुल्याजयन्ति ताः ।
देशनासमये वाचः, श्रीसम्भव-जगत्पतेः ॥३१॥ - भावार्थ - धर्मोपदेश करते समय जिनकी वाणी विश्व के भव्यजन रूपी बगीचे को सींचने के लिए नाली के समान है। वे श्री संभवनाथ भगवंत के वचन जय को प्राप्त हो रहे हैं।
. त्रैलोक्यप्रभवे पुण्यसम्भवाय भवच्छिदे ।
श्रीसम्भवजिनेन्द्राय मनो भवभिदे नमः ॥
भावार्थ - तीन लोक के स्वामी, पवित्र जन्म वाले, संसार को छेदनेवाले और कामदेव को भेदनेवाले श्री संभवनाथ जिनेन्द्र को मैं नमस्कार करता हूं। प्रथम भव :
धातकी खंड के ऐरावत द्वीप में क्षेमपरा नामक नगर था। वहां के राजा का नाम विपुलवाहन था। वह साक्षात् इंद्र के समान शक्ति-वैभव-शाली था। शक्ति होते हुए भी उसे किसी तरह का मद न था। गाय जैसे वछड़े की या माली जैसे अपने बगीचे की रक्षा करता है वैसे ही वह प्रजा की रक्षा करता था। वह पूर्ण धर्मात्मा था। देव-श्री अरहंत, गुरु-श्री निग्रंथ और धर्मदयामय की वह भली प्रकार से भक्ति तथा उपासना करता था। उसकी प्रजा भी प्रायः उसका अनुसरण करनेवाली थी।
___ भावी प्रबल होता है। होनहार के आगे किसी का जोर नहीं चलता। एक बार भयंकर दुष्काल पड़ा। देश में अन्न-कष्ट बहुत बढ़ गया। लोग भूख के मारे तड़प तड़पकर मरने लगे।
राजा यह दशा न देख सका। उसने अपने काम करनेवालों को
: श्री संभवनाथ चरित्र : 62 :