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और इस युवति का नाम अमृतमाला है। इसने ज्ञानी से सुना कि, इसका ब्याह हरिनंदी राजा के पुत्र अपराजित के साथ होगा तब से यह उसीके नाम की माला जपती है। मैंने इसे देखा और मेरे साथ ब्याह करने के लिए इसको उड़ा लाया। मैंने बहुत विनती की; मगर यह न मानी। बोली – 'इस शरीर का मालिक या तो अपराजित ही होगा या फिर अग्नि ही से यह शरीर पवित्र बनेगा।' मेरी बात न मानी इसलिए मैंने इसको अग्नि के समर्पण करना स्थिर किया। इसी समय तुम आये और इसकी रक्षा हो गयी।'
___विमलबोध बोला – 'ये ही हरिनंदी के पुत्र अपराजित है। भाग्य में जो लिखा होता है वह कभी नहीं मिटता।' उसी समय रत्नमाला के मातापिता भी ढूंढूंढते हुए वहां आ गये। उन्होंने यह सारा हाल सुना और वहीं कन्या को अपराजित के साथ ब्याह दिया। सूर्यकांत ने अपराजित को वह मणि जडीबूटी और मंत्री पुत्र को वेश बदलने की गुटिका दे दी। अपराजित यह कहकर वहां से विदा हुआ कि जब मैं बुलाऊं तब इसे मेरी राजधानी में भेज देना।
वहां से चलकर दोनों मित्र एक जंगल में पहुंचे। धूप तेज थी। प्यास से अपराजित का हलक सूखने लगा। विमलबोध उसको एक झाड़ के नीचे बिठाकर पानी लेने गया। वापिस आकर देखता क्या है कि वहां अपराजित का पता नहीं है। वह चारों तरफ ढूंढने लगा, परंतु अपराजित का कहीं पता न चला। बेचारा विमलबोध आक्रंदन करता हुआ इधर-उधर भटकने लगा। कई दिन ऐसे ही निकल गये। एक दिन एक गांव में वह उदास बैठा था, उसी समय उसके सामने दो पुरुष आये और उसका नाम पूछा। उसने नाम बताया, तब व बोले – 'हम भुवनभानु नामक विद्याधर के नौकर हैं। हमारे राजा के कमलिनी और कुमुदिनी नाम की दो पुत्रियां हैं। उनके लिए अपराजित ही योग्य वर है। ऐसी बात निमित्तिये ने कही थी। इसलिए अपराजित को लाने के लिए हमें हमारे मालिक ने भेजा। हमने तुम्हें वन में देखा और हम अपराजित को उठा ले गये; मगर अपराजित तुम्हारे बगैर मौन धारकर बैठा है। अब तुम चलो और हमारे स्वामी की इच्छा पूरी करो।'
: श्री तीर्थंकर चरित्र : 153 :