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________________ कहा -'स्वामी मुझे यह हरिण पकड़ दीजिए।' श्रीविजय हरिण के पीछे दौड़ा। वह बहुत दूर निकल गया। इधर अशनिघोष ने सुतारा को उठा लिया और उसकी जगह बनावटी सुतारा डाल दी। यह चिल्लाई – 'हाय! मुझे सांप ने काट खाया।' यह चिल्लाहट सुनकर श्रीविजय पीछा आया। उसने बेहोश सुतारा के अनेक इलाज किये। मगर कोई इलाज कारगर न हुआ। होता ही कैसे? जब वहां सुतारा थी ही नहीं फिर इलाज किसका होता? थोड़ी देर के बाद उसने देखा कि, सुतारा के प्राण निकल गये हैं। यह देखकर वह भी बेहोश हो गया। नौकरों ने उपचार किया तो वह होश में आया। सचेत होकर वह अनेक तरह से विलाप करने लगा। अंत में एक बहुत बड़ी चिता तैयार करा उसने भी अपनी पत्नी के साथ जल मरना स्थिर किया। धू धू करके चिता जलने लगी। . उसी समय दो विद्याधर वहां आये। उन्होंने पानी मंत्रकर चिता पर डाला। चिता शांत हो गयी और उसमें प्रतारणी विद्या अट्टहास करती हुई भाग गयी। श्रीविजय ने आश्चर्य से ऊपर की तरफ देखा। उसने अपने सामने दो युवकों को खड़े पाया। श्रीविजय ने पूछा- 'तुम कौन हो? वह चिता कैसे बुझ गयी है? मरी हुई सुतारा कैसे जीवित हुई है और वह हंसती हुई कैसे भाग गयी है?' उनमें से एक ने हाथ जोड़कर नम्रतापूर्वक जवाब दिया – 'मेरा नाम संभिन्नश्रोत है। यह मेरा पुत्र है। इसका नाम दीपशिख है। हम अमिततेज स्वामी से आज्ञा लेकर तीर्थयात्रा के लिए निकले थे। रास्ते में हमने किसी स्त्री के रुदन की आवाज सुनी। हम रुदन की ओर गये। हमने देखा कि हमारे स्वामी अमिततेज की बहन सुतारा को दुष्ट अशनिघोष जबर्दस्ती लिये जा रहा है और वह रास्ते में विलाप करती जा रही है। हमने जाकर उसका रास्ता रोका और उससे लड़ने को तैयार हुए। स्वामिनी ने कहा - - 'पुत्रो! तुम तुरंत ज्योतिर्वन में जाओ और उनके प्राण बचाओ। मुझे मरी समझकर कहीं वे प्राण न दे दें। उनको इस दुष्टता के समाचार देना। वे आकर इस दुष्ट पापी के हाथ से मेरा उद्धार करेंगे।' हम तुरंत इधर दौड़े : श्री तीर्थंकर चरित्र : 103 :
SR No.002231
Book TitleTirthankar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages360
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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