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________________ ७. श्री सुपार्श्वनाथ चरित्र श्रीसुपार्श्वजिनेन्द्राय, महेन्द्रमहिताङ्घ्रये । नमश्चतुर्वर्णसङ्घ-गगनाभोगभास्वते ॥ भावार्थ - साधु, साध्वी, श्रावक और श्राविका इस चतुर्विध संघ रूपी आकाश में प्रकाश को फैलाने में सूर्य के समान और इंद्रों ने जिनके चरणों की पूजा की है ऐसे श्री सुपार्श्व जिनेंद्र को मेरा नमस्कार हो । प्रथम भवः • धातकी खंड के पूर्व विदेह में क्षेमपुरी नाम की नगरी थी। उसमें नंदिषेण राजा राज्य करता था। उसको संसार से वैराग्य हुआ और उसने . अरिदमन नामक आचार्य के पास दीक्षा ली, कंठिन महाव्रतों को पाला तथा बीस स्थानक की आराधना कर तीर्थंकर गोत्र का बंध किया। द्वितीय भव : अंत समय में अनशन पूर्वक प्राण त्यागकर नंदिषेण का जीव छट्टे ग्रैवेयक में देव हुआ। तृतीय भव : - .२८ सागरोपम की आयु पूर्ण कर छट्टे ग्रैवेयक से च्यव कर नंदीषेण का जीव बनारस नगरी के राजा प्रतिष्ठ की रानी पृथ्वी के गर्भ में, भाद्रपद वदि ८ के दिन अनुराधा नक्षत्र में आया। इंद्रादि देवों ने च्यवनकल्याणक किया। साढ़े नौ मास बीतने पर पृथ्वी देवी ने जेठ सुदि १२ के दिन विशाखा नक्षत्र में स्वस्तिक लक्षण युक्त, पुत्र को जन्म दिया। छप्पन दिक्कुमारी एवं इन्द्रादि देवों ने जन्मकल्याणक किया। शिशुकाल को व्यतीत कर भगवान युवा हुए। माता-पिता के आग्रह से अनेक राजकन्याओं से उन्होंने शादी की। उनके साथ सुख भोगते हुए जब पांच लाख पूर्व बीत गये तब राज्यपद को ग्रहण किया। : श्री सुपार्श्वनाथ चरित्र : 76 :
SR No.002231
Book TitleTirthankar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages360
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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