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________________ घटते एक हाथ ऊंचे शरीरवाले और सोलह वरस की आयुवाले होते हैं। इसमें सर्वथा दुःख ही होता है। इस प्रकार छठे आरे के इक्कीस हजार वर्ष पूरे हो जाते हैं, तब पुनः उत्सर्पिणी काल प्रारंभ होता है। उसमें भी उक्त प्रकार ही से छ: आरे होते हैं। अंतर केवल इतना ही होता है कि, अवसर्पिणी के आरे एकांत सुषमा से प्रारंभ होते है और उत्सर्पिणी के एकांत दुःखमा से। स्थिति भी अवसर्पिणी के समान ही उत्सर्पिणी के आरों की भी होती है। पाठकों को यह ध्यान में रखना चाहिए कि ऊपर आयु और शरीर की ऊंचाई आदि को जो प्रमाण बताया है वह आरे के प्रारंभ में होता है। जैसे-जैसे काल बीतता जाता है वैसे ही वैसे उनमें न्यूनता होती जाती है और वह आरा पूर्ण होता है तब तक उस न्यूनता का प्रमाण इतना हो जाता है, जितना अगला आरा प्रारंभ होता है उसमें मनुष्यों की आयु और शरीर की ऊंचाई आदि होते हैं। ऊपर जिन आरों का वर्णन किया गया है उनमें अवसर्पिणिकाल में । तीसरे और चौथे आरे में तीर्थंकर होते हैं और उत्सर्पिणी काल के भी तीसरे और चौथे आरे में तीर्थंकर होते हैं। वहां अवसर्पिणी में तीसरे आरे में एक तीर्थंकर और चौथे आरे में तेईस तीर्थंकर होते हैं और उत्सर्पिणी के तीसरे आरे में तेईस तीर्थंकर और चौथे आरे में एक तीर्थंकर होते हैं। अवसर्पिणी के तीसरे आरे के चौंराशीलाख पूर्व तीन वरस साढे आठ महिने शेष रहते हैं तब प्रथम तीर्थंकर का जन्म होता है। और उत्सर्पिणी काल में तीसरे आरे के तीनवरस साढे आठ महिने जाते हैं तब तीर्थंकर का जन्म होता है। : श्री तीर्थंकर चरित्र : 305 :
SR No.002231
Book TitleTirthankar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages360
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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