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तापसों की शिकायत सुन कुलपति महावीर स्वामी के पास आया। उसने प्रभु को उपालंभ की तरह कहा – 'तुमने इस झौंपड़ी की रक्षा क्यों न की? तुम्हारे पिता सब की रक्षा करते रहे, तुम एक झौंपड़ी की भी रक्षा न कर सके? पक्षी भी अपने घौंसले को बचाते हैं पर तुम अपनी झोंपड़ी की घास भी न बचा सके? आगे से खयाल रखना।'
कुलपति चला गया। उस बेचारे को क्या पता था कि देह तक से जिनको मोह नहीं है वे महावीर इस झौंपडी की रक्षा में कब कालक्षेप करनेवाले थे? अहिंसा के परम उपासक, ढोरों को पेट भरने से वंचित कर कब उनका मन दुखानेवाले थे?
प्रभु ने सोचा – 'मेरे यहां रहने से तापसों का मन दुःखता है इसलिए यहां रहना उचित नहीं है। उसी समय प्रभु ने निम्न लिखित पांच नियम लिये
१. जहां अप्रीति हो वहां नहीं रहना। २. जहां रहना वहां खड़े हुए कायोत्सर्ग करके रहना। ३. प्रायः मौन धारण करके रहना। ४. कर-पात्र से भोजन करना। .५. गृहस्थों का विनयं न करना।
शूलपाणि यक्ष को प्रतिबोध (पहला चौमास)
भगवान मोराक गांव से विहार करके 'अस्थिक नामक गांव में 1. वर्द्धमान नाम का एक गांव. था। उसके पास वेगवती नाम की नदी थी। धनदेव
नामक एक सार्थवाह कहीं से माल भर के लाया। उस समय वेगवती नदी में पूर था। सामान्य बैल माल से भरी गाड़ी खींचकर नदी पार करने में असमर्थ थे। इसलिए उसने अपने एक बहुत बड़े हष्ट पुष्ट बैल को हरेक गाड़ी के आगे जोता। इस तरह उस बैल ने पांच सौ गड़ियां नदी पार की मगर बैल को इतनी अधिक महेनत पड़ी कि वह खून उगलने लगा। धनदेव ने गांव के लोगों को इकट्ठा कर उन्हें प्रार्थना की - 'आप मेरे इस बैल का इलाज कराने की कृपा करें। मैं इसके खर्चे के लिए आपको यह धन भेट करता हूं।' लोगों ने उसकी प्रार्थना स्वीकार की और धन ले लिया। धनदेव चला गया। गांव के लोग धन हजम कर गये। बैल की कुछ परवाह नहीं की। बैल मरकर व्यंतर देव हुआ। उसने देव होकर लोगों की क्रूरता, अपने विभंग ज्ञान से देखी और क्रुद्ध होकर गांव में महामारी का रोग फैलाया। लोग इलाज करके थक गये;
: श्री तीर्थंकर चरित्र : 217 :