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________________ युगादिनाथ (ऋषभदेव) का शरीर पसीने, रोग और मल से रहित था। वह सुगंधित, सुंदर आकारवाला और स्वर्णकमल के समान शोभता था। उसमें मांस और रुधिर गौ के दुग्ध की धार के समान उज्ज्वल और दुर्गंध विहीन थे। उनके आहार (भोजन) निहार (दिशा फिरने) की विधि चर्मचक्षु से अगोचर थे। उनके श्वास की खुशबू विकसित कमल के समान थी। ये चारों अतिशय प्रभु को जन्म से ही प्राप्त हुए थे।' वृज्र. ऋषभ नाराच संहनन और समचतुरस्र संस्थान के वे धारी थे। देवता बालरूप धारण कर प्रभु के साथ क्रीड़ा करने आते थे। कलिकाल सर्वज्ञ श्री हेमचंद्राचार्य ने उसका वर्णन इन शब्दों में किया है - समचतुरस्र संस्थान' वाला प्रभु का शरीर ऐसा शोभता था मानों वह क्रीडा करने की इच्छा रखने वाली लक्ष्मी की कांचनमय क्रीड़ा-वेदिका है। जो देवकुमार प्रभु के समान उम्र के होकर क्रीड़ा करने को आते थे उनके साथ भगवान उनका मान रखने के लिए खेलते थे। खेलते वक्त धूलधूसरित शरीरवाले और घूघरमाल धारण किये हुए प्रभु ऐसे शोभते थे, मानों मदमस्त राजकुमार है। जो वस्तु प्रभु के लिए सुलभ थी, वही किसी ऋद्धिधारी देव के लिए अलभ्य थी। यदि कोई देव प्रभु के बल की परीक्षा करने के लिए उनकी अंगुली पकड़ता था, तो वह उनके श्वास में रेणु (रेती के दाने) के समान उड़कर दूर जा गिरता था। कई देवकुमार कंदुक (गैंद) की तरह पृथ्वी पर लोटकर प्रभु को विचित्र कंदुकों से खेलाते थे। कई देवकुमार राजशुक (राजा का तोता) बनकर चाटुकार (मीठा बोलने वाले) की तरह 'जीओ! जीओ! आनंद पाओ! आनंद पाओ! इस तरह अनेक प्रकार के शब्द बोलते थे। कई देवकुमार मयूर का रूप धारणकर केकावाणी (मोर की बोली) से षड्ज स्वर में गायन कर नाच करते थे। प्रभु के मनोहर हस्तकमलों को ग्रहण करने की और स्पर्श करने की इच्छा से कई देवकुमार हंसों का रूप धारण कर गांधार स्वर में गायन करते हुए प्रभु के आसपास फिरते थे। कई प्रभु के प्रीतिपूर्ण दृष्टिपातामृत पान करने की इच्छा से क्रौंचपक्षी का रूप 1. तीर्थंकरों के चौतीस अतिशय होते हैं। उन्हीं में ये प्रारंभ के चार है। देखो तीर्थकरचरित-भूमिका पृष्ठ ३२३ पर। : श्री आदिनाथ चरित्र : 16 :
SR No.002231
Book TitleTirthankar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages360
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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