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चिरकाल तक तप करते रहे; अंत में अनशन कर मृत्यु को प्राप्त हुए और अच्युत देवलोक में इंद्र हुए। . इधर अनंतवीर्य का जीव भी नरक भूमि में दुष्कर्मों के फलभोग स्वर्ण के समान शुद्ध हो गया। फिर वह नरक से निकलकर, वैताढ्य पर्वत पर गगनवल्लभ नगर के स्वामी मेघवाहन की मेघमालिनी पत्नी के गर्भ से उत्पन्न हुआ। उसका नाम मेघनाद रखा गया। जब वह यौवन को प्राप्त हुआ तब मेघवाहन ने उसको राज्य देकर दीक्षा ले ली। - राज्य करते हुए एक बार मेघनाद प्रज्ञप्ति विद्या द्वारा मंदर गिरि पर गया। वहां नंदन वन में स्थित द्वायतन में शाश्वत प्रतिमा की पूजा करने लगा। उस समय वहां कल्पवासी देवताओं का आगमन हुआ। अच्युतेन्द्र ने अपने पूर्व भव के भाई को देखकर, भ्रातृस्नेह से कहा – 'भाई! इस संसार का त्याग करो।'
उस समय वहां अमर गुरु नामक एक मुनि आये हुए थे। मेघनाद ने उनसे चरित्र अंगीकार किया।
एक समय मेघनाद मुनि नंद गिरि गये। रात में ध्यानस्थ बैठे हुए थे, उस समय प्रति वासुदेव का पुत्र-जो उस समय दैत्य योनि में था - वहां आ पहुंचा। अपने पूर्वजन्म के वैरी को देखकर दैत्य को क्रोध हो आया। वह मुनि को उपसर्ग करने लगा। परंतु मेघनाद मुनि तो पर्वत के समान स्थिर रहे। मुनि को शांत देखकर वह बड़ा लज्जित हुआ और वहां से चला गया।
अंत में मेघनादमुनि भी कालांतर में, अनशन करके आयु पूर्णकर अच्युत देवलोक में इंद्र के सामानिक देव हुए। आठवां भव (वज्रायुद्ध-चक्रवर्ती) :
जंबूद्वीप के पूर्व विदेह में सीता नदी के दक्षिण तीर पर मंगलावती नाम की विजय है। उसमें रत्न संचया नाम की नगरी थी। वहां क्षेमंकर नाम का राजा राज्य करता था। उसकी रत्नमाला नाम की रानी थी। अपराजित का जीव अच्युत लोक से च्यवकर उसकी कोख से चौदह स्वप्न सूचित पुत्ररूप में जन्मा। उसका नाम वज्रायुध रखा गया। बड़े होने पर लक्ष्मीवती
: श्री शांतिनाथ चरित्र : 118 :