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________________ तिल का पौदा किसी गाय के पैर से जमीन में घुस गया और धीरे-धीरे वह पुनः पौदे के रूप में आया और उसकी फली सातों पुष्पों के जीव तिल रूप में उत्पन्न हुए। कूर्मग्राम से विहार कर प्रभु जब वापिस सिद्धार्थपुर चले तब रास्ते में तिलके पौदेवाली जगह आयी। वहां गोशालक ने कहा – 'प्रभु, आपने कहा था कि तिल का पौदा फिर उगेगा और फूलों के सात तिल होंगे; मगर ऐसा तो नहीं हुआ।' महावीर बोले – 'हुआ है।' तब गोशालक ने पौदा जाकर देखा और उसकी फली तोड़ी तो उसमें से सात निकले। तब गोशालक ने परिवर्तवाद' के सिद्धांत को स्थिर किया। गोशाल को तेजोलेश्या प्राप्ति की विधि बतायी : प्रभु जब कूर्मग्राम पहुंचे तब वहां एक वैशिकायन नाम का तपस्वी 1. जिस शरीर से जीव मरता है पुनः उसीमें उत्पन्न होता है। इस तरह के सिद्धांत को परिवर्तवाद कहते हैं। 2. चंपा और राजगृह के बीच में एक मोबर नाम का गांव था। उसमें गोशंखी नामक कुण्बी रहता था। वह संतान हीन था। गोबर गांव के पास ही एक खेटक गांव था। लुटेरों ने उसे लूट लिया। गांव के कई लोगों को मार डाला। वेशका नाम की एक थोड़े ही दिन की प्रसुता सुंदर स्त्री को भी वे पकड़कर ले चले। बच्चे को लेकर वह जल्दी नहीं चल सकती थी, इसलिए लुटेरों ने बच्चे को रास्ते में एक झाड़ के नीचे रख दिया और वेशका को चंपानगरी में एक वेश्या के घर बेच दिया। थोड़े दिनों में वह एक प्रसिद्ध वेश्या हो गयी। लड़के को गोशंकी ने ले जाकर बच्चे की तरह पाला। जब वह जवान हुआ तब घी की गाड़ी भरकर चंपा में बेचने के लिए आया। शहर में वेश्या के घर जाने की इच्छा हुई। उसने वेशका के यहां जाना स्थिर किया। रात को जब वह चला तब रास्ते में उसके पैर पाखाने से भर गये, तो भी वह वापिस न फिरा। आगे उसने एक गाय बछड़े को खड़ा देखा। ये उसके कुल देवता थे जो उसे अधर्म से बचाने के लिए आये थे। जवान ने पैर का पाखाना बछड़े के शरीर से पोंछा। बछड़ा बोला – 'माता! वह अधर्मी मेरे शरीर पर विष्टा पोंछ रहा है।' गाय ने जवाब दिया – 'यह महान अधर्मी अपनी मां के साथ भोग करने जा रहा है।' युवक को अचरज हुआ। उसने वेश्या को जाकर उसका असली हाल पूछा। वेश्या ने बताया। फिर उसने आकर कुण्बी को पूछा। कुण्बी ने भी : श्री तीर्थंकर चरित्र : 239 :
SR No.002231
Book TitleTirthankar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages360
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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