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मित्र था। इस भव में यह तेरी यशोमती नामकी पत्नी हुई है। इस तरह सात भवों से तुम्हारा संबंध चला आ रहा है। यही कारण है कि तुम्हारा आपस में बहुत प्रेम है। भविष्य में तुम दोनों अपराजित नाम के अनुत्तर विमान में जाओगे और वहां से च्यवकर इसी भरतखंड में नेमिनाथ नाम के बाईसवें तीर्थंकर होगें और यह राजीमती नाम की स्त्री होगी। तुमसे ही ब्याह करना स्थिर कर यह कुमारी ही तुमसे दीक्षा लेगी और मोक्ष में जायगी।'
___शंख को वैराग्य हुआ और उसने दीक्षा ले ली। उसके अनुजों ने, मित्रों ने और पत्नी ने भी दीक्षा ली। बीस स्थानक तप आराधनकर उसने तीर्थंकर गोत्र बांधा। आठवां भव :
अंत में पादोपगमन अनशन कर शंख मुनि सबके साथ अपराजित नाम के चौथे अनुत्तर विमान में उत्पन्न हुए। . नवां भव (अरिष्ट नेमि) :- .
भरत खंड के सौरिपुर नगर में समुद्रविजय नाम के राजा थे। उनकी पत्नी का नाम शिवादेवी था। शिवादेवी को चौदह महा स्वप्न आये
और शंख का जीव अपराजित विमान से च्यवकर कार्तिक वदि १२ के दिन चित्रा नक्षत्र में शिवादेवी की कोख में चौदह स्वप्न से सुचित आया। इंद्रादि देवों ने च्यवनकल्याणक मनाया। क्रम से नौ महीने और आठ दिन पूरे होने पर श्रावण सुदि ५ के दिन चित्रा नक्षत्र में शिवादेवी ने पुत्ररत्न को जन्म दिया। छप्पन दिक्कुमारी एवं इंद्रादि देवों ने जन्म कल्याणक मनाया। उनका लंछन शंख का और वर्ण श्याम था। स्वप्न में माता ने अरिष्ट रत्नमयी चक्रधारा देखी थी। इसलिए उनका नाम अरिष्टनेमि रखा।
समुद्रविजय के एक भाई वसुदेव थे। उनके श्रीकृष्ण और बलदेव नाम के दो पुत्र हजारों पुत्रों में मुख्य थे। श्रीकृष्ण की वीरता तो जगप्रसिद्ध है। वे वासुदेव थे। श्रीकृष्ण और अरिष्टनेमि चचेरे भाई थे। श्रीकृष्ण बड़े थे और अरिष्टनेमि छोटे। श्रीकृष्ण की एक बहुत बड़ी व्यायामशाला थी। उसमें खास खास व्यक्तियां ही जा सकती थी। उसमें रखे हुए आयुधों का उपयोग
: श्री नेमिनाथ चरित्र : 158 :