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उसका सारा धन उन प्रजाजनों को दिला दिया जिनको उसने लूटा था। फिर डाकू को माफ.कर उसे अपनी राजधानी में ले चला।
रास्ते में शंख का पड़ाव था। वहां रात्रि में उसने किसी स्त्री का करुण रुदन सुना। वह खड्ग लेकर उधर चला। रोती हुई स्त्री के पास पहुंचकर उससे रोने का कारण पूछा। स्त्री ने उत्तर दिया – 'अनंगदेश में जितारी नाम के राजा की कन्या यशोमती है। उसे श्रीषेण के पुत्र शंख पर प्रेम हो गया। जितारी ने कन्या की इच्छा के अनुसार उसकी सगाई कर दी। विद्याधरपति मणिशेखर ने जितारी से यशोमती को मांगा। राजा ने इन्कार किया। तब विद्याधर अपने विद्याबल से उसको हरकर ले चला। मैं भी कन्या के लिपट रही। इसलिए वह दुष्ट मुझ को इस जंगल में डालकर चला गया। यही कारण है कि मैं रो रही हूं।'
शंखकुमार उस धाय को अपने पड़ाव में जाने की आज्ञाकर यशोमती को ढूंढने निकला। एक पर्वत पर उसने यशोमती के साथ विद्याधर को देखा और ललकारा। विद्याधर के. साथ शंख का युद्ध हुआ। अंत में विद्याधर हार गया और यशोमती शंख को सौंप दी। शंख के समान पराक्रमी वीर को कई विद्याधरों ने भी अपनी कन्याएँ अर्पण कीं। शंख सबको लेकर हस्तिनापुर गया। मातापिता को अपने पुत्र के पराक्रम से बहुत आनंद हुआ।
संख के पूर्व जन्म के बंधु सूर और सोम भी आरण देवलोक से च्यवकर श्रीषेण के घर यशोधर और गुणधर नाम के पुत्र हुए। ।
राजा श्रीषेण ने पुत्र को राज्य देकर दीक्षा ली। जब उन्हें केवल ज्ञान हुआ तब राजा शंख अपने अनुजों और पत्नी सहित देशना सुनने गया। देशना के अंत में शंख ने पूछा – 'भगवन यशोमती पर इतना अधिक स्नेह मुझे क्यों हुआ?'
केवली ने कहा – 'जब तूं धनकुमार था तब यह तेरी धनवती पत्नी थी। सौधर्म देवलोक में यह तेरा मित्र हुआ। चित्रगति के भव में यह तेरी . रत्नवती नामकी प्रिया थी। माहेंद्र देवलोक में यह तेरा मित्र था। अपराजित के भव में यह तेरी प्रीतिमती नाम की प्रियतमा थी। आरण देवलोक में तेरा
: श्री तीर्थंकर चरित्र : 157 :