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________________ प्रजा अपना रक्त बहा देने को सदा तैयार रहती थी। वह शत्रुओं के लिए जैसा वीर था, वैसा ही नम्र और याचकों के लिए दयालु और दाता था। इसीलिए वह युद्ध वीर, दयावीर और दानवीर कहलाता था। राज-धर्म में रहकर बुद्धि को स्थिर रख, प्रमाद को छोड, जैसे सर्प राज अमृत की रक्षा करता है वैसे ही वह पृथ्वी की रक्षा करता था। . संसार में वैराग्योत्पत्ति के अनेक कारण होते हैं। संस्कारी आत्माओं के अंतःकरणों में तो प्रायः, जब कभी वे सांसारिक कार्यों से निवृत्त होकर बैठे होते हैं, वैराग्य के भाव उदय हो आते हैं। __ राजा विमलवाहन संस्कारी था, धर्मपरायण था। सवेरे के समय, एक दिन, अपने झरोखे में बैठे हुए उसको विचार आया, 'मैं कब तक संसार के इस बोझे को उठाये फिरूंगा। जन्मा, बालक हुआ-बाल्यावस्था दूसरों की संरक्षता में, खेलन कूदने में और लाड़ प्यार में खोयी। जवान हुआ - युवती पत्नी लाया, विषयानंद निमग्न हुआ, इंद्रियों का दास बना, उन्मत्त होकर भोग भोगने लगा, धर्म की थोड़ी बहुत भावनाएँ जो लड़कपन में प्राप्त हुई थी। उन्हें भुला दिया। मगर उसका क्या परिणाम हुआ? पिता के देहांत ने सब सुख छीन लिया। छिः वास्तविक सुख तो कभी छिनता नहीं है। वह विषय-सेवन का उन्माद गया मगर सर्वथा न मिटा। राज्यकार्य के बोझ के तले वह दब गया। राजा होने पर दुःख और चिंता की मात्रा बढ़ गयी। कठोर राज्यशासन चलाने में कितनों को सताया? कितनों का जी दुखाया? उच्चाकांक्षा, राज्यलोभ और अहमन्यता के कारण कितनों को दुःखी किया? यह सब कुछ किया किन्तु आत्मसुख न मिला। अब पवन विकंपित लतापत्र की भांति यौवन की चंचलता भी जाती रही और राज्य वर्ग का उन्माद भी मिट गया। जिन चीजों को मैं सुखदायी समझता था, जिन भोगों के लिए मैंने समझा था कि इन्हें भोग डालूंगा मगर जैसे के तैसे ही हैं। मेरी ही भोगने की शक्ति जाती रही; तो भी तृष्णा न मिटी।' .. पाठकगण! विवेकी और धर्मी मनुष्यों के दिलों में ऐसे विचार प्रायः आया ही करते हैं। भर्तृहरि ने ऐसे ही विचारों से प्रेरित होकर लिखा है - : श्री तीर्थंकर चरित्र : 43 :
SR No.002231
Book TitleTirthankar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages360
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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