________________
१४. श्री अनन्तनाथ चरित्र
स्वयम्भूरमणस्पर्द्धि-करुणारसवारिणा । अनन्तजिदनन्तां वः प्रयच्छतु सुखश्रियम् ॥
भावार्थ – अपने करुणा - रस रूपी जल के द्वारा स्वयंभू रमण समुद्र से स्पर्द्धा करने वाले श्री अनंतनाथ भगवान अनंत मोक्षसुख रूपी लक्ष्मी तुम्हें देवें।
प्रथम भव :
धातकी खंड द्वीप के ऐरावत क्षेत्र में अरिष्ठा नामक नगरी थी। उसमें पद्मरथ राजा राज्य करता था। किसी कारण उसको संसार से वैराग्य हुआ। रक्ष नामक आचार्य के समीप उसने दीक्षा ली। वीस स्थानक की आराधना से उसने तीर्थंकर गोत्र का बंध किया।
दूसरा भव :
अंतसमय में आयु पूर्ण कर पद्मरथ का जीव प्राणत देवलोक पुष्पोत्तर विमान में देव हुआ।
तीसरा भव :
जंबूद्वीप की अयोध्या नगरी में सिंहसेन राजा था। उसकी सुयशा नाम की रानी थी। उस रानी के गर्भ में पद्मरथ का जीव देवलोक से च्यवकर चौदह स्वप्न सूचित श्रावण वदि ७ के दिन रेवती नक्षत्र में आया। इंद्रादि देवों ने च्यवनकल्याणक मनाया। गर्भावस्था पूर्ण होने पर रानी ने वैशाख वदि १३ के दिन पुष्प नक्षत्र में बाज पक्षी के लक्षणयुक्त पुत्र को जन्म दिया। छप्पन दिक्कुमारी एवं इंद्रादि देवों ने जन्मकल्याणक किया। गर्भकाल में पिता ने अनंत शत्रु जीते थे, इससे इनका नाम अनंतनाथ रखा गया। शिशुकाल को त्यागकर प्रभु युवा हुए। उस समय आग्रह कर मात-पिता ने अनेक कन्याओं के साथ उनकी शादी की। साढ़े सात लाख वर्ष तक युवराज रहे। फिर पिता के आग्रह से राजा बने । और १५ लाख वर्ष तक राज्य किया।
: श्री अनन्तानाथ चरित्र : 92 :