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चंपानगरी में बारहवां चौमासा :
पालक गांव से विहार कर प्रभु चंपानगरी में आये और बारहवां चौमासा वही लिया। वहां स्वातिदत्त नामक किसी ब्राह्मण की यज्ञशाला में चार मासक्षमण कर रहे। वहां पूर्णभद्र और माणिभद्र नाम के दो महर्द्धिक यक्ष आकर प्रभु की पूजा किया करते थे। स्वातिदत्त ने सोचा, जिनकी देवता आकर पूजा करते हैं, वे कुछ ज्ञान जरूर रखते होंगे। इसलिए उसने आकर प्रभु से जीव के संबंध में प्रश्न किये और संतोषप्रद उत्तर पाकर स्वातिदत्त प्रभु
का भक्त बन गया।
कानों में कीलें ठोकने का उपसर्ग :
चंपानगरी से विहार कर प्रभु जृंभक, मेढ़क गांव होते हुए षण्मानि गांव आये। वहां गांव के बाहर कायोत्सर्ग करके रहे। उस समय, वासुदेव के भव में शय्यापालक के कान में तपाया हुआ शीशा डालकर जो असाता वेदनीय कर्म उपार्जन किया था वह उदय में आया। शय्यापालक का वह जीव इसी गांव में गवाला हुआ था। वह उस दिन प्रभु के पास बैलों को छोड़कर गायें दोहने गया। महावीर तो ध्यान में लीन थे। वे कहां बैलों की रखवाली करते? बैल जंगल में निकल गये। गवाले ने वापिस आकर पूछा'मेरे बैल कहां हैं?' कोई जवाब नहीं। 'अरे क्या बहरा है ?' कोई जवाब नहीं। 'अरे अधम! कान है या फूट गये हैं?' कोई जवाब नहीं। 'ठहर मैं तुझे बराबर बहरा बना देता हूं।' कहकर वह गया और 'शरकट' 1 की सूखी लकड़ी काटकर लाया। उसको छीलकर बारीक कीलें बनायी और फिर उन्हें महावीर स्वामी के दोनों कानों में ठोक दीं। परंतु क्षमा के धारक महावीर ने उस पर जरा सा भी क्रोध न किया। वे इस तरह आत्मध्यान में लीन रहे मानों कुछ हुआ ही नहीं है। कानों से बाहर निकला हुआ जो भाग था उसे भी उसने काट डाला, जिससे कीलें आसानी से न निकल सके। गवाला चला
गया।
षष्मानि से विहार कर प्रभु मध्यम अपापा नगरी में आये । और सिद्धार्थ नामक वणिक के घर गोचरी के लिए गये। वहां उसने प्रभु को 1. इससे तीर बनते हैं।
: श्री तीर्थंकर चरित्र : 249 :