SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 187
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ धर्मकार्यों में बिताती। लंपट कमठ को अपने भाई की वैराग्यदशा का हाल मालूम हुआ। उसने वसुंधरा पर डोरे डालने आरंभ किये। एक दिन उसने वसुंधरा को एकांत में पकड़ लिया। भोग की इच्छा रखनेवाली वसुंधरा भी थोड़ा विरोध करने के बाद उसके अधीन हो गयी! उसने अपना शील भोगेच्छा के अर्पण कर दिया। अब तो वे प्रायः विषयभोग में लीन रहने लगे। कमठ की स्त्री वरुणा को यह हाल मालूम हुआ। उसने दोनों को बहुत फटकारा; परंतु उन पर इसका कोई असर न हुआ। तब उसने यह बात अपने देवर मरुभूमि से कही। मरुभूमि ने यह बात न मानी और अपनी आंख से यह बात देखनी चाही। मरुभूति ने बाहर गांव जाने का कहकर कार्पटिक के वेष में आकर घर में रात रहकर दोनों की लीला नजरों से देखी। मरुभूमि को बड़ा क्रोध आया और उसने सवेरे ही जाकर राजा से फरियाद की। धर्म और न्याय के प्रेमी राजा को यह अनाचार अंसह्य हुआ और उसने कमठ का काला मुंह करवा कर, उसका सिर मुंडवाकर, उसे गधे पर बिठवा कर, सारे शहर में फिरवा कर; शहर बाहर निकलवा दिया। वह मरुभूमि पर अत्यंत क्रुद्ध हो, वन में जा, बालतप करने लगा। . सरल परिणामी मरुभूमि जब उसका क्रोध कम हुआ तो सोचने लगा-'मैंने यह क्या अनर्थ किया? जीव को अपने पापों का फल आप ही मिल जाता है। मेरे भाई को भी अपने पापों का फल आप ही मिल जाता। मैंने क्यों राजा से फरियाद की? न मैं फरियाद करता न मेरे भाई को दंड मिलता। चलूं, जाकर भाई से क्षमा मांगू। मरुभूमि ने जाकर राजा से अपने मन की बात कही। राजा ने उसको बहुत समझाया कि दुष्ट स्वभाववाले कभी क्षमा का गुण नहीं समझते हैं। अभी वह तुम पर बहुत गुस्से हो रहा है। संभव है वह तुम पर चोट करे; परंतु वह यह कहकर चला गया कि, अगर वह अपने दुष्ट स्वभाव को नहीं छोड़ता है तो मैं अपने सरल स्वभाव को क्यों छोडूं? मरुभूमि ज्योंही कमठ के पास पहुंचा त्योंही कमठ का क्रोध भभक उठा। और वह मरुभूमि का तिरस्कार करने लगा। मरुभूमि ने नम्रतापूर्वक क्षमा मांगी और नमस्कार किया। इसको कमठ ने अपना उपहास समझा। : श्री पार्श्वनाथ चरित्र : 174 :
SR No.002231
Book TitleTirthankar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages360
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy