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बनाई जाती हैं, जो किनारो पर बड़ी सुन्दरता से सजायी जाती हैं। उनके शरीर के प्रतिबिंब परस्पर में पड़ते हैं इससे ऐसा मालूम होता है कि, वे एक दूसरी का आलिंगन कर रही हैं। स्निग्ध नीलमणियों के घड़े हुए मगर के चित्र, नष्ट, कामदेव-परित्यक्त निज चिह्नरूप मगर की भ्रान्ति उत्पन्न करते हैं। श्वेत छत्र ऐसे सुशोभित होते हैं मानों भगवान के केवलज्ञान से दिशाएँ प्रसन्न होकर मधुर हास्य कर रही हैं। फर्राति हुई ध्वजाएँ ऐसी जान पड़ती हैं मानों पृथ्वी ने नृत्य करने के लिए अपने हाथ ऊँचे किये हैं। तोरणों के नीचे स्वस्तिक आदि अष्ट मंगल के जो चिह्न बनाये जाते हैं वे बलि-पट्ट के समान मालूम होते हैं। समवसरण के ऊपरी भाग का यानी सबसे पहिला गढ़-कोट वैमानिक देवता बनाते हैं। वह रत्नमय होता है और ऐसा जान पड़ता है, मानो रत्नगिरि की रत्नमय मेखला (कंदोरा) वहाँ लायी गयी है। उस कोट पर भाँति-भाँति की मणियों के कंगूरे बनाये जाते हैं वे ऐसे मालूम होते हैं, मानों वे आकाश को अपनी किरणों से विचित्र प्रकार का वस्त्रधारी बना देना चाहते हैं। उसके बाद प्रथम कोट को घेरे हुए ज्योतिष्कपति दूसरा कोट बनाते हैं। उसका स्वर्ण ऐसा मालूम होता है, मानों वह ज्योतिष्क देवों की ज्योति का समूह है। उस कोट पर जो रत्नमय कंगूरे बनाये जाते हैं, वे ऐसे जान पड़ते हैं मानों सुरों व असुरों की स्त्रियों के लिए मुख देखने को रत्नमय दर्पण रक्खे गये हैं। इसके बाद भुवनपति देव तीसरा कोट बनाते हैं। वह अगले दोनों को घेरे हुए होता है। वह ऐसा जान पड़ता है मानो
वैताढ्य पर्वतं मंडलाकर हो गया है-गोल बन गया है। उस पर स्वर्ण के कंगूरे बनाये जाते हैं वे ऐसे जान पड़ते हैं मानों देवताओं की वापिकाओं के (बावड़ियों के) जल में स्वर्ण के कमल खिले हुए हैं। प्रत्येक गढ़ में (कोट में) चार चार द्वार होते हैं। प्रत्येक द्वार पर व्यंतर देव धूपारणे (धूपदानियाँ) रखते हैं। उनसे इन्द्रमणि के स्तंभ-सी धूमलता (धुआँ) उठती है। समवसरण के प्रत्येक द्वार पर चार-चार रस्तोंवाली बावड़ियाँ बनायी जाती है। उनमें स्वर्ण के कमल रहते हैं। दूसरे कोट के ईशान कोण में प्रभु के विश्रामार्थ एक देवछंद (विश्राम-स्थान) बनाया जाता है अंदर के यानी प्रथम कोट के पूर्वद्धार के दोनों किनारे, स्वर्ण के समान वर्णवाले, दो वैमानिक देवता
: श्री तीर्थंकर चरित्र : 319 :