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जीवानंद ने कहा – 'मुझे खेद है कि, मुनि की चिकित्सा के लिए जो सामग्रियाँ चाहिए वे मेरे पास नहीं है। मेरे पास केवल लक्षपाक तैल है। गोशीर्षचंदन और रत्नकंबल नहीं है। अगर तुम ला दो तो मैं मुनि का इलाज
करूं।' .
- पांचों मित्र दोनों चीजें ला देना स्वीकारकर वहां से रवाना हुए। फिरते-फिरते एक वृद्ध व्यापारी के पास पहुंचे। व्यापारी ने कहा – 'प्रत्येक का मूल्य एक-एक लाख स्वर्ण मुद्राएँ है।' उन्होंने कहा – 'हम मूल्य देने को तैयार है।' व्यापारी ने कहा – 'ये तुम किसके लिए चाहते हो?' उन्होंने मुनि महाराज का हाल सुनाया। सुनकर व्यापारी ने सोचा, ये बालक होकर मुनि भगवंत की भक्ति कर रहे है और मैं इनसे मूल्य कैसे लूं? और उसने कहा- 'मैं इनका मूल्य नहीं लूंगा। तुम ले.जाओ और मुनि महाराज का इलाज करो।' वे दोनों चीजें लेकर रवाना हुए। मुनि महाराज की दशा का विचार करने से वृद्ध को वैराग्य हो गया। उसने घर-बार त्याग कर दीक्षा ले ली। . . . - जीवानंद को जब गोशीर्षचंदन और रत्नकंबल मिले तब वह बहुत प्रसन्न हुआ। छःहों मित्र मिलकर मुनि महाराज के पास गये। मुनि महाराज नगर से दूर एक वटवृक्ष के नीचे कार्योत्सर्ग ध्यान में निमग्न थे। तीनों बैठ गये। मुनि महाराज ने जब ध्यान छोड़ा तब उन्होंने सविधि वंदना करके महाराज से इलाज कराने की प्रार्थना की। यह भी निवेदन किया कि चिकित्सा में किसी जीव की हिंसा नहीं होगी। महाराज ने इलाज करने की संमति दे दी। वे तत्काल ही एक गाय का मुर्दा उठा लाये। फिर उन्होंने मुनि महाराज के शरीर में लक्षपाक तैल की मालिश की। तैल सारे शरीर में प्रविष्ट हो गया। तैल की अत्यधिक उष्णता के कारण मुनि महाराज मूर्छित हो गये। शरीर के अंदर के कीड़े व्याकुल होकर शरीर से बाहर निकल आये। जीवानंद ने रत्नकंबल मुनि महाराज के शरीर पर ओढ़ा दिया। कंबल शीतल था इसलिए सारे कीड़े उसमें आ गये। जीवानंद ने धीरे से कंबल को उठाकर गाय के मुर्दै पर डाल दिया। 'सत्पुरुष छोटे से छोटे अपकारी कीड़े जैसे प्राणों की भी रक्षा करते हैं।' कीड़े गाय के शरीर में चले गये। जीवानंद ने मुनि महाराज के शरीर पर अमृतरस के समान प्राणदाता
: श्री तीर्थंकर चरित्र : 7 :