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________________ को नमस्कार कर वहां से चला। जाते वक्त सिद्धार्थ नाम के व्यंतर देव को उसने आज्ञा की - 'तूं-प्रभु के साथ रहना और ध्यान रखना कि कोई इन पर प्राणांत उपसर्ग न करे।' प्राणांत उपसर्ग होने पर भी तीर्थंकर कभी नहीं मरते। कारण १. उनका शरीर 'वज्रऋषभ नाराच' संहननवाला होता है। २. वे निरूपक्रम आयुष्यवाले होते हैं। छट्ठ (बेला) का पारणा : दूसरे दिन छट्ठ का पारणा करने के लिए कोल्लाक2 गांव में गये। वहां बहुल नामक ब्राह्मण के घर प्रभु ने परमान्न से (खीर से) पारणा किया। देवताओं ने उसके घर वसुधारादि पांच दिव्य प्रकट किये। भक्तिजात उपसर्ग :- . दीक्षा के समय प्रभु के शरीर पर देवताओं ने गोशीर्ष चंदन आदि सुगंधित पदार्थों का विलेपन किया था। इससे अनेक भंवरे और अन्य जीवजंतु प्रभु के शरीर पर आ आकर डंख मारते थे और सुगंध का रसपान करने की कोशिश करते थे। अनेक जवान प्रभु के पास आ आकर पूछते थे – 'आपका शरीर ऐसा सुगंधपूर्ण कैसे रहता है? हमें भी वह तरकीब बताइए; वह औषधी दीजिए जिससे हमारा शरीर भी सुगंधमय रहे। परंतु मौनावलंबी प्रभु से उन्हें कोई जवाब नहीं मिलता। इससे वे बहुत क्रुद्ध होते और प्रभु को अनेक तरह से पीड़ा पहुंचाते। . ___ अनेक स्वेच्छा-विहारिणी स्त्रियां प्रभु के त्रिभुवन-मन-मोहन रूप को 1. आयु दो तरह की होती है। एक सोपक्रम और दूसरी निरुपक्रमा सात तरह के उपक्रमों में से घातों में से किसी भी एक उपक्रम से किसी की आयु जलदी समाप्त हो जाती है उसे सोपक्रम आयुवाला कहते हैं। व्यवहार की भाषा में हम कहते हैं इनकी आयु टूट गयी है। निरुपक्रम आयु कभी किसी भी आघात से नहीं टूटती। 2. क्षत्रिय कुंड से राजगृह जाते समय रास्ते में कहीं वह गांव होगा और अब इसका कोई निशान नहीं रहा है। : श्री तीर्थंकर चरित्र : 215 :
SR No.002231
Book TitleTirthankar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages360
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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