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________________ गये और सगर विनिता नगरी में गया। दूसरे दिन प्रभु ने ब्रह्मदत्त राजा के घर क्षीर से छ? तप.का पारणा किया। तत्काल ही देवताओं ने ब्रह्मदत्त के आंगन में साढ़े बारह करोड़ स्वर्ण मुद्राओं की और पवन-विताडिलता पल्लवों की शोभा को हरनेवाले बहु मूल्य सुंदर वस्त्रों की वृष्टि की; दुंदुभिनाद से आकाश मंडल को गुंजा दिया: सुगंधित जल की वृष्टि की और पंचवर्णी पुष्प बरसाये। फिर उन्होंने बड़े हर्ष के साथ कहा – 'यह प्रभु को दान देने का फल है। ऐसे सुपात्र दान से केवल ऐहिक संपदा ही नहीं मिलती है बल्के इसके प्रभाव से कोई इसी भव में मुक्त भी हो जाता है, कोई दूसरे भव में मुक्त होता है, कोई तीसरे भव में सिद्ध बनता है और कोई कल्पातीत' कल्पों में उत्पन्न होता है। जो प्रभु को भिक्षा लेते देखते हैं वे भी देवताओं के समान नीरोग शरीरवाले हो जाते हैं।' जब भगवान ब्रह्मदत्त के घर से पारणा करके चले गये, तब उसी समय ब्रह्मदत्त ने जहां भगवान ने पारणा किया था वहां एक वेदी बनवायी, . उस पर छत्री चुनवायी और हमेशा वहां यह भक्तिभाव से पूजा करने लगा। . भगवान ईर्या समिति का पालन करते हए विहार करने लगे। कभी भयानक वन में, कभी सघन झाड़ियों में, कभी पर्वत के सर्वोच्च शिखर पर और कभी सरोवर के तीर पर, कभी नाना विधि के फूल फूलों के वृक्षों से पूरित उद्यान में और कभी वृक्ष विहीन मरुस्थल में, सभी स्थानों में निश्चल भाव से, शीत, घाम और वर्षा की बाधाओं की कुछ परवाह न करते हुए प्रभु ने ध्यान और कार्योत्सर्ग में अपना समय बिताना प्रारंभ किया। ___ चतुर्थ, अष्टम; दशम, मासिक, चातुर्मासिक, अष्टमासिक आदि उग्र तप सभी प्रकार के अभिग्रहों सहित, करते हुए भगवान ने बारह वर्ष व्यतीत किये। बारह वर्ष के बाद भगवान पुनः सहसाम्रवन नामक उद्यान में आकर सप्तच्छद वृक्ष के नीचे कार्योत्सर्ग ध्यान में निमग्न हुए। 'अप्रमत्तसंयत' नामके सातवें गुणस्थान से प्रमु क्रमशः क्षीणमोह' नाम के गुणस्थान के अंत 1. ग्रैवेयक और अनुत्तर विमान को कल्पातीत कहते हैं। : श्री तीर्थंकर चरित्र : 55 :
SR No.002231
Book TitleTirthankar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages360
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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