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हूं, क्रोध करना मुझे शोभा नहीं देता, तो भी तेरी दुष्टता अब सहन न कर सकूँगा। प्रभु ने तुझको पाप से बचाकर तुझ पर उपकार किया था। तूं उल्टा उपकार के बदले अपकार करता है। सावधान! अब अगर तुरंत तूं अपना उपद्रव बंद न करेगा तो तुझे इसकी सजा दी जायगी।'
मेघमाली अब तक पानी बरसाने में लीन था। अब उसने धरणेन्द्र की बात सुनकर नीचे देखा। प्रभु को निर्विघ्न ध्यान करते देख वह सोचने लगा-'धरणेन्द्र जैसे जिनकी सेवा करते हैं उनको सताने का खयाल करना सरासर मूर्खता है। इनकी शक्ति के आगे मेरी शक्ति तुच्छ है। इनके सामने मैं इसी तरह क्षुद्र हूं जिस तरह हवा के सामने तिनका होता है। तो भी इन क्षमाशील प्रभु को धन्य है कि इन्होंने मेरे उपद्रव को सहन किया है। मेरा कल्याण इसी में है कि, मैं जाकर प्रभु से क्षमा मांगू।
. मेघमाली आकर प्रभु के चरणों में पड़ा; मगर समभावी प्रभु तो अपने ध्यान में मग्न थे। उनके मन में न तो वह उपद्रव कर रहा था तब रोष था न अब यह चरणों में आकर गिरा इससे तोष है। उनके मन में उसकी दोनों कृतियां उपेक्षित हैं। मेघमाली पश्चात्ताप करता हुआ वहां से चला गया। प्रभु को उपसर्ग रहित हुए समझ धरणेन्द्र भी प्रभु को नमस्कार कर अपने स्थान पर चला गया। सवेरा हुआ और प्रभु वहां से विहार कर गये।
प्रभु विचरते हुए ८४ दिन के बाद बनारस के पास आश्रमपद नाम के उद्यान में आये और धातकी वृक्ष के नीचे कायोत्सर्ग करके रहे। वहां उनके घाती कर्मों का नाश हुआ और चैत्र वदि चौथ के दिन, चंद्र जब विशाखा नक्षत्र में था, उन्हें केवलज्ञान उत्पन्न हुआ। दीक्षा लेने के चौरासी दिन बाद प्रभु को केवलज्ञान हुआ। इंद्रादि देवों ने प्रभु का केवलज्ञान कल्याणक किया।
राजा अश्वसेन को प्रभु के समवसरण के समाचार मिले। अश्वसेन वामादेवी और परिवार सहित समवसरण में आये। प्रभु की देशना सुनकर अश्वसेन ने अपने छोटे पुत्र हस्तिसेन को राज्य देकर दीक्षा ली। माता वामादेवी ने और पार्थप्रभु की भार्या प्रभावती देवी ने भी दीक्षा ली। . प्रभु के शासन में पार्श्व नामक शासनदेव और पद्मावती नामा शासन
:: श्री तीर्थंकर चरित्र : 191 :