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गौतम स्वामी ने जिन लोगों की दीक्षा दी थी उन्हें केवलज्ञान हो गया; परंतु गौतम स्वामी को नहीं हुआ। इससे वे दुःखी हुए। उन्हें दुःखी देख महावीर स्वामी ने उन्हें कहा – 'हे गौतम! तुम्हें केवलज्ञान होगा; मगर कुछ समय के बाद। तुमको मुझ पर बहुत मोह है। इसलिए जब तक तुम्हारा मोह नहीं छूटेगा तब तक तुम्हें केवलज्ञान की प्राप्ति भी नहीं होगी।' अंबड संन्यासी का आगमन :
अंबड़ नाम का परिव्राजक प्रभु को वंदना करने आया। उसके हाथ में छत्री और त्रिदंड थे। उसने बड़े ही भक्तिभाव से प्रभु को वंदना की और कहा-'हे वीतराग! आपकी सेवा करने की अपेक्षा आपकी आज्ञा पालना विशेष लाभकारी है। जो आपकी आज्ञा के अनुसार चलते हैं, उन्हें मोक्ष मिलता है। आपकी आज्ञा है कि हेय (छोड़ने योग्य) का त्याग किया जाय
और उपादेय (ग्रहण करने योग्य) को स्वीकारा जाय। आपकी आज्ञा है कि आस्रव हेय है और संवर उपादेय है। आस्रव संसार-भ्रमण का हेतु है और संवर से मोक्ष की प्राप्ति होती हैं। दीनता छोड़ प्रसन्न मन से जो आपकी इस आज्ञा को मानते हैं वे मोक्ष में जाते हैं। आप इस विषय में मुझे उपदेश दे। फिर.
प्रभु का उपदेश सुनने के बाद अंबड़ जब राजगृही जाने को तैयार हुआ तब प्रभु ने अंबड़ को कहे – 'तुम राजगृही में नाग नामक सारथी की स्त्री सुलसा' को धर्मलाभ कहना।' राजा दशार्णभद्र :
चंपा नगरी से विहार कर, प्रभु दशार्ण देश में आये| वहां की सुलसा परम श्राविका थी। महावीर स्वामी ने सुलसा को ही धर्मलाभ क्यों कहलवाया? उसके परम श्राविकापन की जांच करनी चाहिए। यह सोचकर अंबड़ ने अनेक युक्तियों द्वारा उसे श्राविकापन से च्युत करने की कोशिश की: परंतु वह निष्फल हुआ। तब उसको विश्वास हुआ कि, महावीर स्वामी ने सुलसा के प्रति इतना भाव दिखाया वह योग्य ही था। यह देवी सोलह सतियों में से एक है।
: श्री तीर्थंकर चरित्र : 281 :