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कहा – 'तुम इनको छिलके निकालकर खाओ।' इस तरह कुछ दिन किया तो भी वे अच्छी तरह पचते नहीं थे। तब लोग फिर प्रभु के पास गये। प्रभु ने कहा – 'छिलके निकालकर पहिले हाथों में मलो और फिर भिगोकर किसी पत्ते में लो और खाओ।' ऐसा करने से भी जब वह नहीं पचने लगे, तब लोगों ने फिर से जाकर प्रभु से विनती की। प्रभु ने कहा – 'पूर्वोक्त विधि करने के बाद औषधि को (धान्य को) मुट्ठी में या बगल में, थोड़ी देर दबाओ और उनमें जब गरमी पहुंचे तब उन्हें खाओ।' लोग ऐसा ही करने लगे। मगर फिर भी उनकी शिकायत नहीं मिटी।
एक दिन जोर की हवा चली। वृक्ष परस्पर रगड़ाये। उनमें अग्नि पैदा हुई। रत्नों के भ्रम से लोग उसे लेने को दौड़े। मगर वे जलने लगे, तब प्रभु के पास गये। प्रभु ने सब बात समझकर कहा कि, स्निग्ध और रुक्ष काल के योग से अग्नि उत्पन्न हुई है। तुम उसके आसपास से घास फूंस हटाकर, उसमें औषधि पकाओ और खाओ।
... पूर्वोक्त क्रिया करके लोगों ने उसमें अनाज डाला। देखते ही देखते सारा अनाज उसमें जलकर भस्म हो गया। लोग वापिस प्रभु के पास गये। प्रभु उस समय हाथी पर सवार होकर सैर करने चले थे। युगलियों की बातें सनकर उन्होंने थोडी गीली मिट्टी मंगवायी। महावत के स्थान में जाकर हाथी के सिर पर मिट्टी को बढ़ाया और उसका बर्तन बनाया और कहा - 'इसको अग्नि में रखकर सुखा लो। जब यह सूख जाय तब इनमें अनाज रखकर पकाओ और खाओ। सभी ऐसे बर्तन बना लो। उसी समय से बर्तन बनाने की कला का आरंभ हुआ।
विनीता नगरी के बाहिर रहनेवाले लोगों को वर्षादि से कष्ट होने लगा। इसलिए प्रभु ने लोगों को मकान बनाने की विद्या सिखायी। चित्रकला भी सिखायी। वस्त्र बनाना भी बताया। जब प्रभु ने बढ़े हुए केशों और नाखूनों से लोगों को पीड़ित होते देखा, तब कुछ को नाई का काम सिखलाया। . स्वभावतः कुछ लोग उक्त प्रकार की भिन्न भिन्न कलाओं में निपुण हो गये। इसलिए उनकी अलग जातियाँ ही बन गयी। उनकी पांच जातियाँ हुई। १.. कुंभार, २. चित्रकार, ३. वार्द्धिक, ४. जुलाहा, ५. नाई।
. अनासक्त होते हुए भी अवश्यमेव भोक्तव्य कर्म को भोगने के लिए,
: श्री तीर्थंकर चरित्र : 21 :