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कर दी जाती थी। भरत ने उन्हें यह आज्ञा दे रखी थी कि तुम जब भोजन करके रवाना हो तब मेरे पास आकर यह पद्य बोला करो -
'जितो भवान वर्द्धते भीस्तस्मान्मा हन मा हन।'
अर्थात् - तुम जीते हुए हो; भय बढ़ता है इसलिए (आत्मगुण को) न मारो न मारो। सदैव उच्च स्वर से वे लोग इस वाक्य का उच्चारण करते थे, इसलिए लोगों ने उनका नाम 'माहन' रखा। राजा ने उन लोगों को भोजन दिया, इसलिए प्रजा भी उन्हें जिमाने लगी। उनके स्वाध्याय के लिए- ज्ञान के लिए ग्रंथ बनाये गये। उनका नाम वेद (ज्ञान) रखा गया। माहन शब्द अपभ्रंश होते होते 'ब्राह्मण' हो गया। अतः वे लोग और उनकी संतान 'ब्राह्मण' के नाम से ख्यात हुए। भरत चक्रवर्ती के बाद जब कांकणी रत्न का अभाव हो गया तब उनके पुत्र सूर्ययशा ने स्वर्ण के तीन सूत बनाकर उन्हें पहिनने के लिए दिये। पीछे से शनैः ये सूत रूई के हो गये और उसका नाम यज्ञोपवीत पड़ा।
एक बार भगवान के समवसरण में चक्रवर्ती भरत के प्रश्न करने पर प्रमु ने कहा कि, इस अवसर्पिणी काल में भरतक्षेत्र में मेरे बाद तेईस तीर्थंकर होंगे। और तेरे बाद ११ चक्रवर्ती तथा ६ वासुदेव ६ बलदेव और ६ प्रतिवासुदेव होंगे। . .
भरत ने पूछा – भगवंत इस पर्षदा में कोई तीर्थंकर का जीव है? तब भगवान ने पर्षदा के बाहर रहे मरिचि को दर्शाकर कहा – यह इस भरत में प्रथम वासुदेव, महाविदेह में चक्रवर्ती होकर २४वां तीर्थंकर होगा। तब भरत ने उनको वासुदेव, चक्रवर्ती के नाते नहीं पर तीर्थंकर आप होंगे इस कारण मैं आपको वंदन करता हूं। वंदन किया। तब मरिचि ने कूल मद कर नीच गौत्र बांधा।
दीक्षा के पश्चात् जब लाख पूर्व बीते तब प्रभु ने अपना निर्वाण समय नजदीक समझ अष्टापद पर्वत की तरफ प्रयाण किया। वहां जाकर दस हजार मुनियों के साथ प्रभु ने चतुर्दश तप (छः उपवास) करके पादोपगमन' अनशन किया। 1. वृक्ष की तरह स्वस्थ और निश्चेष्ट रहने को ‘पादोपगमन' कहते हैं।
: श्री तीर्थंकर चरित्र : 39 :