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________________ इन्द्र अपने-अपने विमान की घंटा बजवाते है। फिर सौधर्मेन्द्र पालक नामका एक असंभाव्य और अप्रतिम विमान रचवाकर तीर्थकरों के जन्म नगर को जाता है। वह विमान पाँच सौ योजन ऊँचा और एक लाख योजन विस्तृत होता है। उसके साथ आठ इन्द्राणियाँ और उसके आधीन के बत्तीस लाख विमान वासी लाखों देवता भी जाते हैं। विमान जब स्वर्ग से चलता है तब ऊपर बताया गया इतना बड़ा होता है। परंतु जैसे जैसे वह भरतक्षेत्र की ओर बढ़ता जाता है वैसे ही वैसे वह संकुचित होता जाता है। यानी इन्द्र अपनी वैक्रियलब्धि के बल से उसे छोटा बनाता जाता है। जब विमान सूतिकागृह के पास पहुँचता है तब वह बहुत ही छोटा हो जाता है। वहाँ पहुँचने पर सिंहासन में बैठे ही बैठे इन्द्र सूतिका गृह की परिक्रमा देता है और फिर उसे ईशान कोण में छोड़ आप हर्षचित्त होकर प्रभु के पास जाता है। फिर वह विमान मेरु पर्वत पर अन्य देव-देवियों को लेकर चला जाता है। यहाँ इंद्र पहले प्रभु को प्रणाम करता है फिर माता को प्रणाम कर कहता है, - "माता! मैं सौधर्म देवलोक का इन्द्र हूँ। भगवान का जन्मोत्सव करने के लिए आया हूँ। आप किसी प्रकार का भय न रखें।" इतना कहकर वह भगवान की मांता पर अवस्वापनिका नाम की निद्रा का प्रयोग करता है। इससे माता निद्रित-बेहोशी की दशा में होती जाती है। भगवान की प्रतिकृति का एक पुतला भी बनाकर उनकी बगल में रख देता है फ़िर वह अपने पाँच रूप बनाता है। देवता सब कुछ कर सकते हैं। एक स्वरूप से भगवान को अपने हाथों में उठाता है। दूसरे दो स्वरूपों से दोनों तरफ खड़ा होकर चँवर ढोलने लगता है। एक स्वरूप से छत्र हाथ में लेता है और एक स्वरूप से चोबदार की भाँति वज्र धारण करके आगे रहता है। इस तरह अपने पाँच स्वरूप सहित वह भगवान को आकाश मार्गद्वारा मेरु पर्वत पर ले जाता है। देवता जयनाद करते हुए उसके साथ जाते हैं। मेरु पर्वत पर पहुँचकर वह निर्मल कांतिवाली अति पांडुकंबला नाम की शिलासिंहासन-जो अर्हन्तस्नात्र के योग्य होती है उस पर, भगवान को अपनी गोद में लिए हुए बैठ जाता है। जिस समय वह मेरु पर्वत पर पहुँचता है उस समय 'महाघोष' ': श्री तीर्थंकर चरित्र : 313 :
SR No.002231
Book TitleTirthankar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages360
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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