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२२. मणि का, स्वर्ण का और चाँदी का इस तरह तीन गढ़ होते हैं। २३. चार मुँह से देंशना-धर्मोपदेश-देते हैं। (पूर्व दिशा में भगवान बैठते
हैं.और शेष तीन दिशाओं में व्यंतर देव तीन प्रतिबिंब रखते हैं।) २४. उनके शरीरप्रमाण से बारह गुना अशोक वृक्ष होता है। वह छत्र,
घंटा और पताका आदि से युक्त होता है। २५. काँटे अधोमुख-उल्टे हो जाते हैं। २६. चलते समय वृक्ष भी झुककर प्रणाम करते हैं। २७. चलते समय आकाश में दुंदुभि बजती हैं। २८. योजन प्रमाण में अनुकूल वायु होता है। २६. मोर आदि शुभ पक्षी प्रदक्षिणा देते फिरते हैं। ३०. सुगंधित जल की वृष्टि होती है। ३१. जल-स्थल में उद्भूत पांच वर्णवाले सचित फूलों की, घुटने तक ____ आ जायँ इतनी, वृष्टि होती है। ३२. केश, रोम, डाढ़ी, मूंछ, और नाखून (दीक्षा लेने के बाद) बढ़ते . नहीं हैं। ३३. · कम से कम चार निकाय के एक करोड़ देवता पास में रहते हैं। ' ३४. सर्व ऋतुएँ अनुकूल रहती हैं।
____ इनमें से प्रारंभ के चार (१-४) अतिशय जन्म ही से होते हैं इसलिए वे स्वाभाविक-सहजातिशय कहलाते हैं।
फिर ग्यारह (५-१५) अतिशय केवलज्ञान होने के बाद उत्पन्न होते हैं। ये 'कर्मक्षनजातिशय' कहलाते हैं। इनमें के सात (६-१२) उपद्रव तीर्थंकर विहार करते हैं, तब भी नहीं होते हैं यानी विहार में भी इनका प्रभाव वैसा ही रहता है।
अवशेष उन्नीस (१६-३४) देवता करते हैं। इसलिए वे 'देवकृतातिशय' कहलाते हैं।
ऊपर जिन अतिशयों का वर्णन किया गया है उनको शास्त्रकारों ने . संक्षेप में चार भागों में विभक्त कर दिया है। जैसे - १. अपायापगमातिशय २. ज्ञानातिशय ३. पूजातिशय और ४. वचनातिशय।
: श्री तीर्थंकर चरित्र : 325 :