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६. श्री पद्मप्रभु चरित्र
पद्मप्रभप्रभोदेह-भासः पुष्णन्तु वः श्रियम् । अन्तरङ्गारिमथने, कोपाटोपादिवारुणाः ॥
भावार्थ - काम, क्रोधादि अंतरंग शत्रुओं का नाश करने में कोप की प्रबलता से मानों पद्मप्रभु का शरीर लाल हो गया है वह लाली तुम्हारी लक्ष्मी का (मोक्ष लक्ष्मी का) -पोषण करे।
प्रथम भव :
धातकी खंड के पूर्व विदेह में वत्स नाम की विजय है। उसीमें सुसीमा नाम की नगरी है। उसका राजा अपराजित था। उसको, कोई कारण पाकर, संसार से वैराग्य हो गया। उसने पिहिताश्रव मुनि के पास दीक्षा ली। चिरकाल तक तपश्चर्या करके बीस स्थानक की आराधना की । उसीके प्रभाव से तीर्थंकर गोत्र का उपार्जन किया।
दूसरा भव :
अंत में अपराजित ने शुभ ध्यानपूर्वक प्राण छोड़े, नवग्रैवेयक में देव हुआ। वहां २१ सागरोपम तक सुख भोग कर आयु पूर्ण किया। तीसरा भव :
जंबूद्वीप में भरतक्षेत्र में कौशांबी नाम की नगरी थी। उसका प्रजापति राजा था। उसकी रानी का नाम सुसीमा था। उसीके गर्भ में अपराजित राजा का जीव माघ वदि ६ के दिन चित्रा नक्षत्र में आया। इंद्रादिक देवों ने च्यवनकल्याणक किया। नौ महिने साढ़े सात दिन व्यतीत होने पर कार्तिक वदि १२ के दिन चित्रा नक्षत्र में प्रभु ने जन्म धारण किया। छप्पन दिक्कुमारी एवं इंद्रादि देवों ने जन्मकल्याणक मनाया। सुसीमा देवी
: श्री तीर्थंकर चरित्र : 73 :