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आलभिका से विहार कर महावीर श्वेतांबी नगरी में आये। वहां हरिसह नामक विद्युत्कुमारेन्द्र वंदना करने आया।
वेतांबी से विहार कर प्रभु श्रावस्ती नगरी में आये। वहां प्रतिमा धारणकर रहे। उस दिन लोग स्वामी कार्तिकेय की मूर्ति की बड़ी धूमधाम के साथ पूजा अर्चा और रथयात्रा करनेवाले थे। यह बात शक्रेन्द्र को अच्छी न लगी। इसलिए उसने मूर्ति में प्रवेश किया और चलकर प्रभु को वंदना की। भक्त लोगों ने भी महावीर स्वामी को, स्वामी कार्तिकेय का आराध्य समझकर उनकी महिमा की। ..
____ श्रावस्ती से विहारकर प्रभु कौशांबी नगरी में आये। वहां सूर्य और चंद्रमा ने अपने विमानों सहित आकर प्रभु को वंदना की।
कौशांबी से विहार कर अनेक स्थलों में विचरण करते हुए प्रभु वाराणसी (बनारस) पहुंचे। वहां शक्रेन्द्र ने आकर प्रभु को वंदना की।
वहां से राजगृही पधारे। वहां ईशानेन्द्र ने आकर वंदना की।
राजगृही से विहारकर प्रभु मिथिलापुरी पहुंचे। वहां राजा जनक ने और धरणेन्द्र ने आकर प्रभु.को वंदना की। वैशाली में ग्यारहवां चौमासा. :... मिथिलापुरी से विहार कर महावीर स्वामी वैशाली आये और ग्यारहवां चौमासा वहीं बिताया। वहां उन्होंने समर नाम के उद्यान में, बलदेव के मंदिर के अंदर चार मासक्षमण कर प्रतिमा धारण की। भूतानंद नामक नागकुमारेन्द्र ने आकर प्रभु को वंदना की।
वैशाली में जिनदत्त नाम का एक नगर सेठ था। उसकी संपत्ति चली जाने से वह जीर्णसेठ' के नाम से प्रसिद्ध हो गया था। वह हमेशा महावीर स्वामी के दर्शन करने आता था। उसके मन में यह अभिलाषा थी कि प्रभ को मैं अपने घर पर पारणा कराऊंगा और धन्यजीवन होऊंगा।
चौमासा समाप्त हुआ। प्रभु ने ध्यान तजा। जीर्णसेठ ने प्रभु को भक्ति सहित वंदनाकर विनती की – 'प्रभो! आज मेरे घर पारणा करने पधारिए।' फिर उसने घर जाकर निर्दोष आहारपानी तैयार करा प्रभु के आने की, दरवाजे पर खड़े होकर प्रतिक्षा आरंभ की।
: श्री तीर्थंकर चरित्र : 245 :