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१५. श्री धर्मनाथ चरित्र
कल्पद्रुमसधर्माण-मिष्टप्राप्तौ शरीरिणाम् ।
चतुधर्मदेष्टारं, धर्मनाथमुपास्महे ॥ भावार्थ - जो प्राणियों को इच्छित फल की प्राप्ति में कल्पवृक्ष के समान है और जो दान, शील, तप और भाव रूपी चार प्रकार के धर्म का उपदेश करनेवाले हैं उन श्री धर्मनाथप्रभु की हम उपासना करते हैं। . प्रथम भव :
धातकी खंड के पूर्व विदेह में, भरत नाम के देश में भद्रिलं नगर था। वहां का राजा द्रढ़रथ था। उसको संसार से वैराग्य उत्पन्न हुआ। उसी समय उसने विमलवाहन गुरु के पास दीक्षा ली। चिरकाल तक चारित्र पाला और बीस स्थान की आराधना से तीर्थंकर गोत्र बांधा।' दूसरा भव :
समाधिमरण से द्रढ़रथ का जीव वैजयंत नामक विमान में देव हुआ। तीसरा भव :
रत्नपुर नगर के राजा भानु की रानी सुव्रता के गर्भ में द्रढ़रथ राजा का जीव वैजयंत विमान से च्यवकर चौदह स्वप्न सूचक वैशाख सुदि ७ के दिन पुष्प नक्षत्र में आया।
इंद्रादि देवों ने च्यवनकल्याणक मनाया। गर्भ काल को पूर्ण कर सुव्रता रानी को उदर से, माघ सुदि ३ के दिन पुष्प नक्षत्र में, वज्र लक्षणयुक्त पुत्र का जन्म हुआ। छप्पन दिक्कुमारी एवं इंद्रादि देवों ने जन्मकल्याणक मनाया। जब प्रभु गर्भ में थे उस समय माता को धर्म करने का दोहला हुआ था। इससे उनका नाम धर्मनाथ रखा गया।
__ उन्होंने यौवन काल में माता-पिता के आग्रह से पाणिग्रहण किया,
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