________________
देख, भोगावली कर्मों का क्षय समझ, तत्काल ही सगर कुमार को बुलाया
और कहा – 'बंधु! मेरे भोगकर्म समाप्त हो चुके हैं। अब मैं संसार से तैरने का कार्य करूंगा-दीक्षा लूंगा। तुम इस राज्य को ग्रहण करो। ..
सगरकुमार के हृदय पर मानों वज्र गिरा। दुःख से उनका चेहरा श्याम हो गया। नेत्रों से अश्रुजल बरसने लगे। भला स्वच्छंदतापूर्वक सुखभोग को छोड़कर कौन मनुष्य उत्तरदायित्व का बोझा अपने सिर लेना चाहेगा? उन्होंने गद्गद् कंठ होकर नम्रता पूर्वक कहा – 'देव! मैंने कौन सा ऐसा अपराध किया है कि, जिसके कारण आप मेरा इस तरह त्याग करते हैं? यदि कोई अपराध हो भी गया हो तो आप उसके लिए मुझे क्षमा करें। पूज्य पुरुष अपने छोटों को उनके अपराधों के लिए सजा देते हैं, उनका त्याग नहीं करते। वृक्ष का सिर आकाश तक पहुंचता हो, परंतु छाया नं देता हो, तो वह निकम्मा है। घनघटा छायी हो परंतु बरसती न हो तो वह निकम्मी है। पर्वत महान हो मगर उसमें जलस्रोत न हो तो वह निकम्मा है। पुष्प सुंदर हो परंतु सुगंध-विहीन हो तो निकम्मा है। इसी तरह तुम्हारे बिना यह राज्य मेरे लिये भी निकम्मा है। आप मुक्ति के लिए संसार का त्याग करते हैं, मैं आपकी चरणसेवा के लिए संसार छोडूंगा। मैं माता, पुत्र, पत्नी सबको छोड़ सकता हूं; परंतु आपको नहीं छोड़ सकता। यहां मैं युवराज होकर आपकी आज्ञा पालता था, वहां शिष्य होकर आपकी सेवा करूंगा। यद्यपि मैं अज्ञ और शक्ति-हीन हूं तो भी आपके सहारे, उस बालक की तरह जो गाय की पूंछ पकड़कर नदी पार हो जाता है, मैं भी संसार सागर से पार हो जाऊंगा। मैं आपके साथ दीक्षा लूंगा, आपके साथ वन वन फिरूंगा, आपके साथ अनेक प्रकार के दुःसह कष्ट सहूंगा, मगर आपको छोड़कर राज्यसुख भोगने के लिए मैं यहां न रहूंगा। अतः पूज्यवर! मुझे साथ लीजिए।'
जिसके प्रत्येक शब्द से प्रभु-विछोह की आंतरिक दुःसह वेदना प्रकट हो रही थी, जिसका हृदय इस भावना से टूक-टूक हो रहा था कि, भगवान मुझे छोड़कर चले जायेंगे; उस मोहमुग्ध सगर कुमार को प्रभु ने अपनी स्वाभाविक अमृतसम वाणी में कहा – 'बंधु! मोहाधीन होकर मेरे
: श्री अजितनाथ चरित्र : 52 :