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विमल ज्ञान प्रबोधिनी टीका जाया गया भोजन करने से, श्रमणों के उद्देशकर, निग्रंथों के उद्देशकर जो अन्न बनाया है, उस भोजन को , जाहार देने में स्वयं समर्थ होकर भी दूसरों से आहार दिलाना, खरीदकर लाये भोजन के करने में, अन्न प्रासुक होने पर भी पाखंडियों के साथ, गृहस्थों के साथ पाखंडियों के साथ मुनियों को जो देने का संकल्प किया जाता है ऐसा भोजन करने से, जिस पात्र में आहार पकाया था, उसमें से वह आहार निकालकर अन्य पात्र में स्थापित करके स्वगृह में अथवा परगृह में ले जाकर स्थापित किये भोजन को करने से, रसना इन्द्रिय की पुष्टि करने वाले विविध रसों से बने पौष्टिक भोजन को करने से, घर स्वामी के द्वारा इन्कार किये भोजन के करने से, यक्षनाग आदि के लिये तैयार किये भोजन को करने से, निश्चित किया हुआ, अथवा पक्ष, माह, वर्ष को बदलकर दिये गये भोजन को करने से, अपंक्तिबद्ध ऐसे घरों से लाया गया भोजन करने से अथवा शुद्ध-अशुद्ध आहार को मिलाने से जो भोजन दूषित, घट्टित दोषयुक्त हुआ है ऐसा भोजन करने से, अत्यंत गृद्धता से भोजन करने में, साधु को अपने आहार में, गर्मी के दिनों में २ भाग पानी १ भाग भोजन और १ भाग खाली रखना तथा ठंडी के दिनों में २ भाग भोजन १ भाग पानी तथा १ भाग खाली मात्रा का ध्यान रखकर आहार करना चाहिये । इस मात्रा का उल्लंघन कर मात्रा से अधिक भोजन करने में मुझे जो भी कोई अतिचार, अनाचार जनित दोष लगे हों वे मेरे दुष्कृत मिथ्या होवें । मैं गोचरी समय लगने वाले दोषों का निराकरण करने के लिये प्रतिक्रमण करता हूँ।
स्वप्न सम्बन्धी दोषों की आलोचना पडिस्कमामि भंते ! सुमणिंदियाए, विराहणाए, इस्थिविपरियासियाए, दिद्विविप्परियासियाए, मणि-विपरियासियाए, वचि-विप्परियासियाए, कायविपरियासियाए, भोयण-विप्परियासियाए, उच्चावयाए, सुमण-दसणविपरियासियाए, पुटवरए, पुब्बखेलिए, णाणा-चिंतासु, विसोतियासु इत्य मे जो कोई राइओ ( देवसियो) अइचारो अणाचारो तस्स मिच्छा मे दुक्क डं । ____ अन्वयार्थ ( भंते! ) हे भगवन् ! ( सुमणिदियाए ) स्वप्न में ( विराहणाए ) विराधना में ( इत्थि विप्परियासियाए ) स्त्री विपर्यासिका में