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विमल ज्ञान प्रबोधिनी टीका अन्वयार्थ -( ये ) जो ( दिगंबरा ) दिगंबर/वीतरागी/निग्रंथ साधु ( गिरिकंदर दुर्गेषु ) गिरि/पर्वतों में, पर्वतों की कन्दराओ में और ( दुर्गेषु ) भीषण जंगलों में ( वसंति ) रहते हैं ( पाणिपात्र पुटाहारा: ) हाथरूपी पात्र की अञ्जुली में आहार लेते हैं ( ते ) वे ( परमां गतिम् ) [ मरणोत्तर/समाधि कर ] उत्तम गति को ( यांत्ति ) जाते हैं ।
भावार्थ--जो दिगम्बर वीतरागी सन्त तीनों ऋतुओं में योग धारण करते हुए पर्वतों में, पर्वत की कन्दराओं, गुफा आदि में तथा भयानक जंगलों में निवास करते हैं वे समाधि कर उत्तम देवर्गात या मोक्ष-पद को प्राप्त करते हैं।
अञ्चलिका इच्छामि भंते ! योगि भत्ति-काउस्सग्गो कओ, तस्मालोचे अलाइज्जादीवदोसमुद्देस, पण्णारस-कम्मभूमिसु, आदावणरुक्खमूलअब्मोघासठाणमोण-विरासणेक्कपास कुक्कुडासण चउछपक्ख-खवणादि जोगजुताणं, सव्यसाहूणं, णिच्चकालं, अच्चेमि, पुज्जेमि, वंदामि, णमस्सामि, दुक्खक्खओ, कम्मक्खओ, बोहिलाहो, सुगइगमणं, समाहिमरणं, जिणगुणसंपत्ति होउ मज्झं ।
अन्वयार्थ ( भंते ! ) हे भगवन् ! मैंने ( योगिभत्ति काउस्सग्गो कओ ) योगभक्ति का कायोत्सर्ग किया ( तस्स आलोचेउं ) उसकी आलोचना करने की ( इच्छामि ) मैं इच्छा करता हूँ। ( अट्ठाइज्जदीव-दोसमुद्देसु) अढाई द्वीप और दो समुद्रों में ( पण्णारस-कम्मभूमिसु ) पन्द्रह कर्मभूमियों में ( आदावण-रुक्खमूल-अब्भोवास-ठाण-मोण-विरासणेक्कपासकुक्कुडासण-चउ-छ-पक्ख-खवणादि जोग-जुत्ताणं सव्वसाहूणं) आतापनवृक्षमूल-अभ्रावकाश योग, मौन, वीरासन, एकपार्श्व, कुक्कुटासन, पक्षोपवास आदि योगों से युक्त समस्त साधुओं की ( णिच्चकालं, अच्चेमि, पुज्जेमि, वंदामि, णमस्सामि ) नित्य सदाकाल अर्चा करता हूँ, पूजा करता हूँ, वन्दना करता हूँ, उनको नमस्कार करता हूँ, मेरे ( दुक्खक्खओ कम्मक्खओ) दुखों का क्षय हो, कर्मों का क्षय हो ( बोहिलाहो ) रत्नत्रय की प्राप्ति हो ( सुगइगमण ) उत्तम गति में गमन हो, ( समाहिमरणं ) समाधिमरण हो ( जिणगुण संपत्ति होऊ मज्झं ) मुझे जिनेन्द्रदेव के गुणों की प्राप्ति हो ।