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विमल ज्ञान प्रबोधिनी टीका
आचार्य भक्ति
स्कन्द अमया यांगोति छर सिद्ध-गुण-स्तुति निरता नुत-रुषाग्नि-जालबहुलविशेषान् । गुप्तिभिरभिसंपूर्णान् मुक्ति युतःसत्यवचनलक्षितभावान् ।। १ ।।
अन्वयार्थ ( सिद्धगुण-स्तुति-निरतान् ) जो सिद्ध परमेष्ठी भगवन्तों के गुणों की स्तुति में सदा लीन रहते हैं, ( उद्धृत-रुषाग्निजाल-बहुलविशेषान् ) जिन्होंने क्रोधरूपी अग्नि समूह के अनन्तानुबंधी आदि अनेक विशेष भेदों को नष्ट कर दिया है, ( गुप्तिभि: अभिसम्पूर्णान् ) जो गुप्तियों से परिपूर्ण हैं ( मुक्ति युक्तः ) जो मुक्ति से सम्बद्ध हैं या मुक्ति लक्ष्मी से सदा सम्बन्ध रखने वाले हैं ( सत्य-वचन-लक्षित-भावान् ) सत्य वचनों से जिनके प्रशस्त, निर्मल भावों का परिचय प्राप्त होता है, ऐसे आचार्य परमेष्ठी भगवन्तों को ( अभिनौमि' ) मैं नमस्कार करता हूँ। .
भावार्थ जो आचार्य पद में स्थित हो सदा सिद्ध स्तुति किया करते हैं, उनके सम्यक्त्व आदि आठ गुण व अनन्त गुणों का स्मरण किया करते हैं, जिन्होंने क्रोध कषायरूपी अग्नि के विभिन्न भेदों—अनन्तानुबंधी क्रोध, अप्रत्याख्यान क्रोध, प्रत्याख्यान क्रोध आदि अथवा कषायरूपी अग्नि के अनन्तानुबंधी क्रोध-मान-माया-लोभ आदि अनेक भेदों को नष्ट कर दिया है, जो मन-वचन-काय गुप्ति के पालन में पूर्ण दक्ष हैं, जिनका सम्बन्ध सदा मुक्ति लक्ष्मी से बना हुआ है अर्थात् जो निकट भव्यता को प्राप्त हैं, सत्य, समीचीन वचनों से शुभ, निर्मल, पुण्य भावों से जिनके कुल-शील व चारित्र का परिचय प्राप्त होता है, ऐसे उत्तम गुणों के स्वामी आचार्य परमेष्ठी को मैं ( पूज्यपाद ) नमस्कार करता हूँ।
मुनिमाहात्म्य विशेषान्, जिनशासनसत्प्रदीपभासुरमूर्तीन् । सिव्हिं प्रपित्सुमनसो, बद्धरजोविपुलमूलघातनकुशलान् ।। २ ।।
अन्वयार्थ-( मुनि-माहात्म्य-विशेषान् ) जो मुनियों के माहात्म्य विशेष को प्राप्त हैं अर्थात् जिन्हें मुनियों का विशिष्ट माहात्म्य प्राप्त है १-यद्यपि श्लोक में नमस्कार सूचक कोई वान्ग्य नहीं है तथापि यह वाक्य श्लोक ग्यारहवें से लिया गया हैं, ११वें श्लोक तक यह सम्बन्ध लगाते जाना है।