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विमल ज्ञान प्रबोधिनी टीका
मनुष्य क्षेत्र के अकृत्रिम चैत्यालयों की संख्या मानुषे च क्षेत्रे ।
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अष्टापञ्चाशदतश्चतुः शतानीह लोकालोक - विभाग- प्रलोकनाऽऽ लोक-संयुजां जय भाजाम् ।।७।। अन्वयार्थ - ( लोक- अलोक-विभाग- प्रलोकनालोक-संयुजां ) लोक और अलोक के विभाग को देखने वाले प्रकाशपुञ्ज - केवलज्ञान - दर्शन से सहित ( जयभाजां ) घातिया कर्मरूपी शत्रु का नाश कर सर्वत्र विजय को प्राप्त ऐसे भगवान् अरहन्त देव के अकृत्रिम जिनालय ( इह मानुषे च क्षेत्रे ) इस मनुष्य लोक में ( अष्टापञ्चाशदतः चतुः शतानि ) चार सौ अठावन हैं।
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भावार्थ- मनुष्य लोक में अढाई द्वीप में ३९८, नन्दीश्वर द्वीप में ५२, कुण्डलगिरि पर ४ और रुचकगिरि पर ४ कुल मिलाकर तिर्यक्लोक के ४५८ अकृत्रिम चैत्यालय हैं।
सुदर्शन मेरु सम्बन्धी ७८ जिनालय हैं— सुदर्शन मेरु के चार वनों में १६, विजयार्ध पर्वतों पर ३४, वक्षार पर्वतों पर १६, गजदन्तों पर ४, कुलाचलों पर ६, जम्बू और शाल्मलि वृक्षों पर २ इस प्रकार एक मेरु सम्बन्धी ७८ जिनालय हैं। पाँच मेरु सम्बन्धी ७८४५ = ३९० अकृत्रिम चैत्यालय हैं।
इनमें इष्वाकार पर्वतों के ४, मानुषोत्तर पर्वत के ४, नन्दीश्वरद्वीप के ५२, कुण्डलगिरि के ४ और रुचकगिरि के ४ जिनालय मिलाने पर ३९०+४+४+५२+४+४= ४५८ चैत्यालय हैं।
इन चैत्यालयों में भी ढाई द्वीप मानुषोत्तर पर्वत तक के जिनालयों के दर्शन देव, विद्याधर तथा चारणऋद्धिधारक मुनियों को ही हो सकते हैं तथा इसके आगे के अकृत्रिम चैत्यालयों के दर्शन देवों को ही हो सकते हैं, मनुष्यों को कभी नहीं ।
तीनों लोकों के अकृत्रिम चैत्यालयों की संख्या
'नव-नव - चतुः शतानि च, सप्त च नवतिः सहस्र - गुणिताः षट् च । पञ्चाशत्पञ्च वियत्, प्रहताः पुनरत्र कोटयोऽष्टौ प्रोक्ताः ||८|| एतावन्त्येव सता - मकृत्रि- माण्यथ जिनेशिनां भवनानि ।
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भुवन त्रितये त्रिभुवन सुर समिति समर्च्यमान - सप्रतिमानि ।। ९ ।।
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