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विमल ज्ञान प्रबोधिनी टीका
४१५ मेरु सम्बन्धी भद्रशाल, नन्दन, सौमनस और पाण्डुकवन इस प्रकार चारों वनों के चार-चार कुल ८० जिनालयों की प्रदक्षिणा देकर उनकी दिव्य जलादि द्रव्यों से उत्तम रीत्या पूजा करते हैं । पूजा अभिषेक से महापुण्य का सञ्चय कर वे देवगण अपने-अपने स्थान को चले जाते हैं।
एक-एक मेरु पर्वत पर चार-चार वन हैं । भ्रदशाल, नन्दन, सौमनस और पांडुक । मेरु पर्वतों के सबसे नीचे चारों ओर भद्रशाल वन है, इनके ऊपर मेरु पर्वत के चारों ओर नन्दन वन है उसके ऊपर तीसरी कटनी पर चारों ओर सौमनस वन है और उनके ऊपर चारों ओर पांडुक वन हैं । इस प्रकार पाँचों मेरु सम्बन्धी बीस वन हैं। इन वनों की चारों दिशाओं में एकएक अकृत्रिम चैत्यालय हैं । इस प्रकार पाँच मेरु पर्वतों पर अस्सी चैत्यालय
नन्दीश्वर द्वीप के चैत्यालयों की विभूति सहतोरणसद्वेदी - परीतवनयाग - वृक्ष - मानस्तम्भः । ध्वजपंक्तिदशकांपुर, चयनितःच-माहीमामा-नाः ।।११।। अभिषेकप्रेक्षणिका, क्रीडनसंगीतनाटकालोकगृहः । शिल्पिविकल्पित-कल्पन-सकल्पातीत-कल्पनैः समुपेतैः ।। २२।। वापी सत्पुष्करिणी, सुदीर्घिकाद्यम्बुसंसृतैः समुपेतः । विकसितजलरुहकुसुमै नभस्यमानैः शशिग्रहः शरदि ।।२३।।
गाराब्दक-कलशा, धुपकरणैष्टशतक-परिसंख्यानैः । प्रत्येकं चित्रगुणैः, कृतझणझणनिनद-वितत-घंटाजालैः ।। २४।। प्रविभाजते नित्यं, हिरण्मयानीचरोशनां भवनानि । गंधकुटीगतमृगपति, विष्टर-रुचिराणि-विविध-विभव-युतानि ।। २५।।
अन्वयार्थ-वे अकृत्रिम चैत्यालय ( सहतोरण-सवेदी-परीतवनयागवृक्ष-मानस्तम्म-ध्वजपंक्ति-दशक-गोपुर-चतुष्टय-त्रितयशाल मण्डपवय: ) अकृत्रिम तोरणों से, चारों ओर रहने वाले वनों से, यागवृक्षों से, मानस्तम्भों से, दस-दस प्रकार की ध्वजाओं की पंक्तियों से, चार-चार गोपुरों से, तीन परिधियों वाले श्रेष्ठ मण्डपों से ( शिल्पिविकल्पित-कल्पन-संकल्पातीतकल्पनैः ) चतुर शिल्पियों से कल्पित संकल्पातीत रचनाओं से ( समुपेतैः ) सहित ( अभिषेक-प्रेक्षणिका-क्रीडन-संगीत-नाटक-आलोकगृह: ) अभिषेक