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विमल ज्ञान प्रबोधिनी टीका सहस्र रश्मि सूर्य की कान्ति को तिरस्कृत करता हुआ ( धर्म-सुचक्रम् ) उत्तम धर्म-चक्र ( अग्रगामि ) आगे-आगे चलता है। ___ भावार्थ-जिस समय तीर्थकर भगवान् का विहार होता है उस समय कान्तिमान एक हजार आरों से सुशोभित, निर्मल महारत्नों की किरणों के समूह से व्याप्त, अपनी कान्ति से सूर्य की तेज दीप्ति को भी तिरस्कृत करने वाला ऐसा उत्तम धर्मचक्र भगवान के आगे-आगे चलता
इत्यष्ट-मंगलं च, स्वादर्श-प्रभृति-भक्ति-राग-परीतैः । उपकल्प्यन्ते त्रिदशै रेतेऽपि निरुपमातिशयाः ।।५१।।
अन्वयार्थ विहार काल में ( इति ) इसी प्रकार ( स्वादर्शप्रभृति अष्टमङ्गलं च ) दर्पण को आदि ले आठ मंगल द्रव्य भी साथ में रहते है ( एते अपि ) ये आठ मङ्गल दूर भी आगे आगे हते हैं । निरुपम अतिशयाः ) उपमातीत विशेष अतिशय भी { भक्तिराग परीतैः ) भक्ति के राग में रंगे हुए ( त्रिदशैः ) देवों के द्वारा ( उपकल्प्यन्ते ) किये जाते हैं।
भावार्थ-जिनेन्द्रदेव के बिहारकाल में एक सहस्र आरों वाले दैदीप्यमान धर्मचक्र के समान ही, अनपम शोभा से युक्त दर्पण आदि आठ मङ्गल द्रव्य भी आगे चलते हैं। इस प्रकार उपमातीत ये १४ अतिशय जिनभक्ति के राग में रंजित देवों के द्वारा किये जाते हैं। ___ इस प्रकार अरहन्त भगवान् के जन्म के दश अतिशय, केवलज्ञान के दस अतिशय और देवकृत चौदह अतिशय ऐसे कुल ३४ अतिशय होते हैं। इनमें १. अर्धमागधीभाषा २. आपस में मित्रता ३. षट्ऋतु के फल-फूल एक काल में फलना ४. दर्पण सम पृथ्वी का होना ५. मन्द सुगन्ध हवा चलना ६. भूमि कण्टक रहित होना ७. सृष्टि में हर्ष होना ८. सुगन्धित जल की वृष्टि होना ९. चरण-कमलों के नीचे स्वर्ण कमलों की रचना होना १०. आकाश का निर्मल होना ११. दिशाओं का निर्मल होना १२ आकाश में जयघोष रूप दुन्दुभिनाद होना १३. धर्मचक्र का आगेआगे चलना और १४ अष्टमंगल द्रव्यों का आगे-आगे चलना ये १४ अतिशय भक्ति के राग में रंजित देवों के द्वारा प्रीतियुक्त हो किये जाते हैं।