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विमल ज्ञान प्रबोधिनी टीका ४३१
दुन्दुभिवाद्य प्रबल-पवनाभिघात-प्रक्षुभित-समुद्र-घोष मन्द्र - ध्यानम् । दन्थ्यन्यते सुवीणा-वंशादि- सुवाध-दुन्दुभिस्तालसमम् ।। ५६ ।। ___ अन्वयार्थ-( प्रबल-पवन-अभिघात-प्राक्षुभित-समुद्र-धोष-मन्द्र ध्यानम् ) कठोर वायु के आघात से क्षुभित समुद्र के शब्द के समान गम्भीर स्वर वाला ( सुवीणा-वंशादि-सुवाद्य-दुन्दुभिः ) प्रशस्त वीणा और बाँसुरी आदि उत्तम वाद्यों से सहित दुन्दुभि ( ताल समं ) ताल के अनुसार ( दंध्वन्यते ) बार-बार गम्भीर शब्द करता है ।
भावार्थ-समवशरण में अनेक प्रकार के उत्तमोत्तम वीणा, बाँसुरी आदि वाद्यों का कर्णप्रिय दुंदुभिनाद ताल के अनुसार व गंभीर आवाज में होता रहता है। यह जिनदेव का दुन्दुभिनाद नामक प्रातिहार्य है।
तीन छत्र त्रिभुवन-पतिता-लाञ्छन-मिन्दुप्रय-तुल्य-मतुल-मुक्ता-आलम् । छत्रत्रयं च सुबृहद्-वैडूर्य-विक्लप्त-दण्ड-मधिक-मनोज्ञम् ।।५७।।
अन्वयार्थ--( त्रिभुवन-पतितालाञ्छनं ) तीनों लोकों के चिह्नरूप ( इन्द्रवयतुल्यं ) तीन चन्द्रमाओं के समान { अतुल मुक्ताजालम् ) अनुपम मोतियों के जाल से सहित ( सुबृहद्-वैडूर्य-विक्लप्त दण्ड ) बहुत विशाल नीलमणि निर्मित दण्ड से युक्त तथा ( अधिक मनोज्ञं ) अत्यन्त सुन्दर ( छत्रत्रयं ) तीन छत्र शोभायमान होते हैं।
भावार्थ-समवशरण में तीन लोकों के स्वामीपने को सूचित करने वाले तीन पूर्ण चन्द्रमाओं के समान सुन्दर मोतियों की लटकती मालाओं से युक्त, नीलमणि से निर्मित दण्ड से शोभित अत्यन्त सुन्दर तीन छत्र भगवान् के सिर पर सदा शोभायमान होते हैं।
दिव्यध्वनि ध्वनिरपि योजनमेकं, प्रजायते श्रोतृ-हृदयहारि-गम्भीरः । ससलिल-जलथर-पटल-ध्वनितमिव प्रविततान्त-राशावालयम् ।। ५८।।
अन्वयार्थ ( श्रोतृहृदय हारिगमीरः ) कर्ण और हृदय को हरने वाली गम्भीर ( ध्वनिः अपि ) दिव्यध्वनि भी ( एक योजनं ) एक योजन तक
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