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विमल ज्ञान प्रबोधिनी टीका अन्वयार्थ ( सेनापति-स्थपति-हर्म्यपति-द्विप-अश्व-स्त्री-चक्र-चर्ममणि- काक्रिणिका-पुरोधा-छत्र-असि-दंड-पतय: ) सेनापति, स्थपति/उत्तम कारीगर, हर्म्य पति/ घर का सभी हिसाब आदि रखने वाला, हाथी, घोड़ा, स्त्रीरत्न/चक्रवर्ती की पट्टरानी, सुदर्शनचक्र, चर्मरत्न, चूड़ामणिरत्न, काकिणीरत्न, पुरोहितरत्न, छत्र, तलवार और दंड इन १४ रत्नो के स्वामी चक्रवर्ती भी ( यस्य प्रणमन्ति ) जिनको नमस्कार करते हैं ( तस्मै ) उन ( त्रिभुवनप्रभवे ) तीन लोक के स्वामी ( जिनाय ) जिनदेव के लिये ( नस: ) नमस्कार हो।
भावार्थ-जिनेन्द्रदेव के समवशरण में सेनापति, स्थपति, हर्म्यपति, हाथी, घोड़ा, स्त्रीरत्न, सुदर्शनचक्र, चर्मरत्न, चूड़ामणिरत्न, काकिणीरत्न, पुरोहित रत्न, छत्र, तलवार एवं दंड रत्न के स्वामी चक्रवर्ती भी आकर नमस्कार करते हैं फिर साधारण लोगों को तो नमस्कार करना ही चाहिये।
९ निधि के स्वामी से वन्दित पद्मः कालो महाकालः सर्वरत्नश्च पांडुकः,
नैसर्पो माणयः शंखः पिंगलो निघचो नव । एतेषां पतयः प्रणमन्ति यस्य,
तस्मै नम-स्त्रिभुवन-प्रभवे जिनाय ।।१०।। अन्वयार्थ ( पद्म: काल: महाकालः सर्वरत्न: च पांडुक : नैसर्पः माणव: शंख: पिंगला ) पद्म, महापद्म, काल, महाकाल, सर्वरत्न, पांडुक, नैसर्प, माणव, शंख, पिंगला ये ( नवनिधयः ) नव निधियाँ हैं ( एतेषां पतयः ) इन निधियों के स्वामी चक्रवर्ती ( यस्य ) जिनके चरणों में ( प्राणमन्ति) नमस्कार करते हैं ( तस्मै ) उन ( त्रिभुवनप्रभवे ) तीन लोक के नाथ ( जिनाय ) जिनेन्द्रदेव के लिये ( नम: ) नमस्कार हो ।
अर्हन्त का स्वरूप खविय- घण-घाइ-कम्मा,
चउतीसातिसयविसेसपंचकल्लाणा। अट्टवरपाडिहेरा
अरिहंता मंगला . मज्झं ।।११।।