________________ 440 विमल ज्ञान प्रबोधिनी टीका ज्योतिषी और कल्पवासी ये चार प्रकार के देव परिवार सहित ( दिव्वेहि पहाणेहि, दिव्वेहि गंधेहि, दिव्बेहिं अक्रोहिं, दिव्वेहिं पुप्फेहि, दिव्वेहि चुण्णेहि, दिव्बेहिं दीवेहि, दिव्वेहिं धूवेहि, दिब्वेहि वासेहिं ) दिव्य सुगन्धित जल, दिव्य गंध, दिव्य अक्षत, दिव्य पुष्प, दिव्य नैवेद्य, दिव्य दीप, दिव्य धूप और दिव्य फलों ( आमाद-कत्तिय-फागुण-मासाणं अट्टमिमाई काऊण जाव पुण्णिमति ) आषाढ, कार्तिक व फागुन मास की अष्टमी से लेकर पूर्णिमा पर्यन्त ( णिच्चकालं अचंति, पुज्जति, वंदंति, णमस्संति णंदीसरमहाकल्लाण-पज्ज़ करंति ) नित्यकाल अर्चना करते हैं, पूजा करते हैं, वन्दना करते हैं, नमस्कार करते हैं, नन्दीश्वर महापर्व का महाउत्सव करते हैं, ( अहम् अवि ) मैं भी ( इह संतो ) यहाँ रहता हुआ ( तत्थासंताइयं / वहाँ स्थित जिन चैत्यालय प्रतिमाओं की ( णिच्चकालं अच्चेमि, पुज्जेमि, वंदामि णमस्सामि ) नित्यकाल अर्चा करता हूँ, पूजा करता हूँ, वंदना करता हूँ / नमस्कार करता हूँ मेरे ( दुक्खक्खओ कम्मक्खओ, बोहिलाहो, सुगइगमणं, समाहिमरणं जिनगुण संपत्ति होउ मज्झं ) दुःखों का क्षय हो, कर्मों का क्षय हो, रत्नत्रय की प्राप्ति हो, सुगति में गमन हो, समाधिमरण हो, जिनेन्द्र देव के गुणरूप सम्पत्ति की मुझे प्राप्ति हो। भावार्थ हे भगवन् ! नन्दीश्वर भक्ति का कायोत्सर्ग करके तत्सम्बन्धी आलोचना करने की इच्छा करता हूँ / नन्दीश्वर द्वीप के अंजनगिरि, दधिमुख व रतिकर पर्वतों पर एक-एक दिशा सम्बन्धी 13-13 कुल 52 जिनालयों में 500-500 धनुष ऊँची रत्नमयी जिनप्रतिमाएँ हैं। एक-एक मन्दिर में 108-108 प्रतिमाएं हैं। इन जिनप्रतिमाओं के साक्षात् दर्शन मनुष्य नहीं कर सकता है / चार प्रकार के देव ही कार्तिक, आषाढ़ और फाल्गुन मास में अष्टमी से पूर्णिमापर्यन्त आठ दिनों तक वहाँ जाकर निरन्तर जिनप्रतिमाओं की दिव्य जल, गंध, अक्षत, पुष्प, नैवेद्य, दीप, धूप व फलों से अर्चन, पूजन, वन्दन, नमन करते हैं। यहाँ भरत क्षेत्र में स्थित मैं भक्तिपूर्वक सर्व जिनबिम्ब व जिनालयों की नित्यकाल अर्चा, पूजा, वन्दना, नमस्कार करता हूँ। जिनेन्द्रदेव की मंगल आराधना से मेरे समस्त दुखों का क्षय हो, कर्मों का क्षय हो, रत्नत्रय की प्राप्ति हो, सुगति में गमन हो, समाधिमरण हो तथा जिनेन्द्रदेव के गुणों रूपी सम्पत्ति मुझे प्राप्त हो /