Book Title: Vimal Bhakti
Author(s): Syadvatvati Mata
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 438
________________ ४३४ विमल ज्ञान प्रबोधिनी टीका उन ( त्रिभुवन प्रभवे ) तीन लोक के नाथ (जिनाय ) जिनदेव के लिये ( नमः ) नमस्कार हो । भावार्थ – जिनेन्द्रदेव की समवशरण सभा की रचना इस प्रकार है कि उसमें सबसे पहले धूलिसाल नामका कोट-तट हैं, उसके बाद एक वेदी हैं । उसके बाद पुन: एक वेदी है। इस वेदी के बाद दूसरा सुवर्ण का एक कोट/ तट है, उस तट के आगे पुनः वेदी है तथा इस वेदी के बाद तृतीय रूपा का तट हैं । उसके आगे पुनः वेदी है, उसके बाद पुनः स्फटिकमणि का तट है और उसके आगे पुनः वेदी है। इस प्रकार की रचना से जिनका समवशरण सुशोभित हैं उन जिनेश्वर के लिये नमस्कार हो । प्रासाद- चैत्य - निलयाः परिखात - वल्ली, प्रोद्यानकेतुसुरवृक्षगृहाड् - पीठत्रयं सदसि यस्य सदा विभाति, तस्मै नम स्त्रिभुवन प्रभवे जिनाय || ३ || अन्वयार्थ – ( प्रासाद ) महल ( चैत्यनिलया ) चैत्यालय ( परिखा ) खातिका ( अथ ) पश्चात् ( वल्लि ) लता (प्रोद्यान) उद्यान (केतु) ध्वजा ( सुरवृक्ष ) कल्पवृक्ष (च ) और (गृहांगगण: ) गृहसमूह ( पीठत्रयं ) तीन पीठ (यस्य ) जिनकी ( सदसि ) सभा में ( सदा ) हमेशा ( विभाति ) शोभायमान हैं ( तस्मै ) उन ( त्रिभुवन प्रभवे ) तीन भुवन के स्वामी (जिनाय ) जिनेन्द्रदेव के लिये ( नमः ) नमस्कार है । गणाश्च । भावार्थ - उस समवशरण सभा में प्रथम धूलिशाल कोट और वेदि के मध्य में सुन्दर महल व चैत्यालय है अतः इसे चैत्यप्रासाद भूमि कहते | प्रथम व द्वितीय वेदी के आगे खातिका भूमि हैं। पश्चात् दूसरी वेदी और स्वर्ण के कोट के मध्य में मल्लिका आदि लताओं के वन हैं अतः इसे लता भूमि कहते हैं। स्वर्ण के कोट और तीसरी वेदी दोने के मध्य में सुन्दर बगीचे हैं अतः उस भूमि को लताभूमि कहते हैं। पुनः वेदि और चांदी के कोट के मध्य में ध्वजाओं की पंक्ति सुशोभित हैं अतः इस भूमि को ध्वजा भूमि कहते हैं। उसके आगे वेदी के मध्य भाग में कल्पवृक्ष व चैत्यवृक्ष है अतः इस भूमि को कल्पवृक्ष भूमि कहते हैं। चौथी वेदी और स्फटिक मणि के कोट के मध्य में "महल" हैं अतः इस भूमि को गृहांग भूमि कहते हैं ।

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