Book Title: Vimal Bhakti
Author(s): Syadvatvati Mata
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 426
________________ ४२२ विमल ज्ञान प्रबोधिनी टीका अन्वयार्थ—(जिनपतय: ) जिनेन्द्रदेव । तत्प्रतिमाः ) जिन प्रतिमाएँ ( तत् आलयाः ) उनके मन्दिर और ( तत् निषधका-स्थानानि ) उनके निर्वाण स्थान हैं । ( ते ता: च तानि च ) वे जिनेन्द्रदेव. उनकी प्रतिमाएँ, जिनमन्दिर और उनके निर्वाण-स्थल ( भत्र्यानाम ) भव्याजीवों के { भवघातहेतवः ) संसार क्षय के कारण होवें। भावार्थ-जो भत्र्यात्मा जिनेन्द्रदेव, जिन-प्रतिमाओं, जिन-मन्दिर व जिनेन्द्रदेव के निर्वाणस्थलों की पूजा, आराधना, स्तुति-वन्दना आदि करते हैं वे संसार संतति का शीघ्र क्षयकर मुक्ति को प्राप्त करते हैं । अत: मुमुक्ष भव्य बन्धुओं को इनकी स्तुति, वन्दना, आराधना यथाशक्ति अवश्य करना चाहिये। तीनों समय नन्दीश्वर भक्ति करने का फल सन्ध्यासु तिसृषु नित्यं, पठेद्यदि स्तोत्र- मेतदुत्तम-यशसाम् । सर्वज्ञानां सार्व, लधु लभने शुतधरेडि पदः पमितम् ।।३।। __ अन्वयार्थ-( य: ) जो ( उत्तम यशसाम् ) उत्कृष्ट यश के पुज ( सर्वज्ञानां ) सर्वज्ञ देवों के ( एतत् सार्वं स्तोत्रं ) इस सर्व हितंकर स्तोत्र को ( यदि ) यदि ( नित्यं तिसृषु सन्ध्यासु ) प्रतिदिन तीनों सन्ध्याओं में ( पठेत् ) पढ़ता है वह ( लघु ) शीघ्र ही ( श्रुतधर-इडितं ) श्रुतके धारक शास्त्रज्ञ गणधरादि मुनियों के द्वारा पूज्यता, स्तुति को प्राप्त होकर ( अमितम् पदम् ) शाश्वत अनन्त, स्थान मोक्ष को ( लभते ) प्राप्त होता है। भावार्थ-इस जिन स्तुति के पुण्य पाठ को जो भव्यजीव श्रद्धा-भक्ति से प्रतिदिन तीनों संध्याकालों में पढ़ते हैं वे निकट काल में मुक्ति के भाजन, भव्यात्मा शीघ्र ही मुक्ति लक्ष्मी के अनन्त सुखों को प्राप्त करते हैं । अरहंतों के शरीर सम्बन्धी दश अतिशय आर्याछन्द नित्यं निःस्वेदत्वं, निर्मलता क्षीर-गौर-रुधिरत्वं च । स्वाद्याकृति-संहनने, सौरूप्यं सौरभं च सौलक्ष्यम् ।। ३८।। अप्रमित-वीर्यता च, प्रिय-हित वादित्व-मन्यदमित-गुणस्य । प्रथिता दश-विख्याता, स्वतिशय-धर्मा स्वयं- भुवो देहस्य ।।३९।।

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