Book Title: Vimal Bhakti
Author(s): Syadvatvati Mata
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 428
________________ ४२४ विमल ज्ञान प्रबोधिनी टीका ( अच्छायत्वम् ) छाया का नहीं पड़ना ( अपक्ष्म-स्पन्दः ) नेत्रों के पलक नहीं झपकना ( समप्रसिद्ध-नख-केशत्वं ) नख और केशों को नहीं बढ़ना { घातिक्षयजा ) घातिया कमों के क्षय से होने वाले ( स्वतिशय गुणा भगवतः ) भगवान् के ये स्वाभाविक गुण उत्तम अतिशय है ( ते अपि दश एव ) वे भी दश ही होते है। भावार्थ-घातिया कर्मों के क्षय से केवलज्ञान की प्राप्ति होते ही तीर्थंकर भगवान् पाँच हजार धनुष ऊपर जाकर शोभा को प्राप्त होते हैं। वहीं इतना ऊँचाई पर सुन्दर विशाल समवशरण की रचना होती है। समवशरण में भगवान का एक मुख चारों दिशाओं में दिखाई देता है। केवलज्ञान होते ही १० अतिशय उनमें प्रकट होते हैं १. तीर्थकर का जहाँ विहार होता है-वहाँ से ४०० योजन [ चारों दिशाओं में १००-१०० योजन | तक सुभिक्ष होता २. आकाश में गमन होना ३. किसी जीव का वध नहीं होना ४. कवलाहार का अभाव ५. उपसर्ग का अभाव ६. चारों दिशाओं में मुख दिखना ७. सब विद्याओं का स्वामित्व होना ८. शरीर की छाया नहीं पड़ना ९. नेत्रों की पलक नहीं झपकना १०. नख व केशों का नहीं बढ़ना ।। केवली भगवान् के औदारिक शरीर से समस्त निगोदिया जीवों का निर्गमन हो जाता है अतः उनका शरीर परमौदारिक, स्फटिक के समान शुद्ध हो जाता है । कवलाहार के अभाव में भी उनका शरीर ८ वर्ष अन्तर्मुहूर्त कम एक कोटि पूर्व तक स्थिर रह सकता है। देवकृत चौदह अतिशय सार्वार्धमागधीया, भाषा मैत्री च सर्व-जनता-विषया। सर्वर्तु-फल-स्तबक-प्रवाल-कुसुमोपशोभित-तरु-परिणामाः ।। ४२।। आदर्शतल - प्रतिमा, रत्नमयी जायते मही च मनोज्ञा । विहरण-मन्येत्यनिलः, परमानन्दश्च भवति सर्व-जनस्य ।।४३।। अन्वयार्थ-( सार्वार्धमागधीया भाषा ) समस्त प्राणियों का हित करने वाली अर्धमागधी भाषा, ( सर्वजनताविषया मैत्री च ) समस्त जन समूह में मैत्री भाव ( सर्व ऋतु फल-स्तबक प्रवाल कुसमीपशोभित-तरु

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