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विमल ज्ञान प्रबोधिनी टीका ४२५ परिणामा ) छहों ऋतुओं के फलों के गुच्छे, पत्ते और फूलों से सुशोभित वृक्षों से युक्त होना ( च मही रत्नमयी मनोज्ञा आदर्श तल प्रतिमा जायते )
और पृथ्वी का रत्नमयी, सुन्दर, दर्पण के समान निर्मल होना ( अनिल: विहरणम् अन्वेति ) वायु का बिहार के अनुकूल चलना ( च सर्वजनस्य परम-आनन्द: भवति ) और समस्त जीवों का परम आनन्दित होना ।
भावार्थ-केवलज्ञान के पश्चात समवशरण सभा में विराजमान जिनेन्द्रदेव की सभी प्राणियों के लिये हितकारी ऐसी दिव्यध्वनि अर्द्धमागधी भाषा में खिरती है, जहाँ भी समवशरण का/केवली भगवान् का विहार होता है अथवा समवशरण में समस्त जाति विरोधी जीव भी बैरव-भाव को छोड़कर मित्रता से रहते है, शरद, शीत, हेमन्त, वर्षा, उष्ण व बसन्त इन छहों ऋतुओं के फल-फल जहाँ भी तीर्थंकरों केवली भगवन्तों का विहार होता है एक-साथ आते हैं, जिस ओर तीर्थंकर दव का विहार होता है समस्त पृथ्वी सुन्दर, रत्नमयी, दर्पणवत् स्वच्छ हो जाती है, वायु जिस ओर भगवान् का विहार होता है उन्हीं का अनुकरण करती हुए मन्द-मन्द बहती है तथा चारों ओर सभी जीव परम आनन्द का अनुभव करते हैं। मरुतोऽपि सुरभि-गन्ध-व्यामिश्रा योजनान्तरं भूभागम् । व्युपशमित-धूलि-कण्टक-तृण-कीटक-शर्करोपलं प्रकुर्वन्ति ।। ४४।। तदनु स्तनितकुमारा, विद्युन्माला-विलासा-हास-विभूषाः । प्रकिरन्ति सुरभि-गन्यि, गन्धोदक वृष्टि-माजया त्रिदशपसेः ।। ४५।।
__अन्वयार्थ ( सुरभिगन्ध व्यामिश्रा मरुतःअपि ) सुगंधित वायु भी ( योजनान्तरं भूभार्ग ) एक योजन के अन्तर्गत पृथ्वी के भाग को ( व्युपशमितधूलि-कण्टक-तृण-कीटक-शर्करा-उपलं ) धूलि, कण्टक, तृण, कीट, रेत, पाषाणरहित ( प्रकुर्वन्ति ) करते हैं ( तदनु ) उसके बाद ( त्रिदशपतेः ) इन्द्र की ( आज्ञया ) आज्ञा से ( विद्युत्-माला-विलास-हास-विभूषाः ) बिजलियों के समूह की चमकरूपी हास्य-विनोद रूप वेषभूषा से युक्त ( स्तनितकुमारा: ) स्तनितकुमार जाति के देव अर्थात् बादलों की गर्जना ही जिनके आभूषण हैं ऐसे स्तनितकुमार जाति के देव मेघ का रूप धारणकर ( सुरभिगन्धि ) मनोहर गन्ध से युक्त ( गन्धोदक वृष्टिं ) सुगन्धित जल को वर्षा ( प्रकिरन्ति ) करते हैं।