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विमल ज्ञान प्रबोधिनी टीका
भक्ति का वर्णन बृहस्पति भी अपनी वाणी से नहीं कर सकता, फिर उन चैत्यालयों की स्तुति करने के लिये सामान्य मनुष्य में सक्षमता कैसे आ सकती है अर्थात् उनकी स्तुति करना मानव मात्र की समर्थता / शक्ति के बाहर हैं।
निष्ठापित जिनपूजा चूर्ण स्नपनेन दृष्टविकृतविशेषाः । सुरपतयो नन्दीश्वर - जिन भवनानि प्रदक्षिणीकृत्य पुनः ।। १८ ।। पञ्चसु मंदरगिरिषु श्री श्रदशालनन्दन - सौमनसम् । पाण्डुवनमिति तेषु प्रत्येकं जिनगृहाणि चत्वार्येव । । १९ । तान्यथ परीतय तानि च नमसित्वा कृतसुपूजनास्तत्रापि । स्वास्पदमीयुः सर्वे, स्वास्पदमूल्यं स्वचेष्टया संगृह्य ।। २० ।।
अन्वयार्थ - ( चूर्णस्नपनेन ) सुगन्धित चूर्ण से जिन्होंने अभिषेक पूर्वक (निष्ठापित जिनपूजा: ) जिनेन्द्र पूजा पूर्ण की है— पूजा में हर्ष से भाव-विभोर होने से महा आनन्द आ रहा है उस आनंद से ( दृष्ट-विकृत विशेषाः ) जिनको आकृति कुछ विकृत हो गई है, ऐसे सुरत) इन्द्र ( पुनः ) पूजा के बाद फिर ( नन्दीश्वर जिनभवनानि ) नन्दीश्वर द्वीप के चैत्यालयों की ( प्रदक्षिणी कृत्य ) प्रदक्षिणा करके पश्चात् वे इन्द्र- " १८"
( पंचसु मन्दगिरिसु श्रीभद्रशाल नंदन सौमनसम् पाण्डुकवनं इति ) पाँचों मेरु सम्बन्धी श्री भद्रसालवन, नन्दनवन, सौमनस वन और पाण्डुक वन इस प्रकार ( तेषु चत्वारि एव प्रत्येकं जिनगृहाणि ) उन चारों ही वनों में प्रत्येक में चार चार जिन चैत्यालयों की ( अथ तानि परीत्य ) प्रथम प्रदक्षिणा देकर ( च ) और ( तानि नमसित्वा) उनको नमस्कार करके ( तत्र अपि ) वहाँ भी ( कृत सुपूजना: ) अभिषेक, पूजा आदि उत्तम रीति से करते हैं तथा ( सर्वे ) सभी देव (स्वास्पदमूल्यं संगृह्य ) अपने-अपने योग्य पुण्य का संचय करके ( स्वास्पदं ईयुः ) अपने-अपने स्थान को चले जाते हैं ।
भावार्थ- सुगन्धित चूर्ण से जिनेन्द्रदेव का महाअभिषेक व पूजा में भावविभोर के नृत्य, गान रूप भक्ति के रंग में रंग जाने से महाआनन्द आ रहा है उस आनन्द से जिनकी आकृति कुछ विकृत हो रही हैं ऐसे इन्द्र नन्दीश्वरद्वीप के समस्त चैत्यालयों की प्रदक्षिणा करते हैं उसके पश्चात् पाँच