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विमल ज्ञान प्रबोधिनी टीका
प्रणाम करने का ऐहिक फल क्रुद्धाशीविष दष्ट दुर्जय विषय ज्वालावली विक्रमो, विद्या भेषज मन्त्र सोय हवनै याति प्रशान्तिं यथा । तो चगारूषाकुम पुन स्तरखानां नृणाम्, विघ्नाःकायविनायकाश्च सहसा शाम्यन्त्यहो विस्मयः ।। २ ।।
अन्वयार्थ—( यथा ) जिस प्रकार ( क्रुद्ध-आशीविष-दष्ट-दुर्जयविषयज्वालावली-विक्रम: ) अत्यन्त क्रोध को प्राप्त साँप के द्वारा उसे मनुष्य के दुर्जेय विष, ज्वालाओं के समूह का प्रभाव, महाशक्ति ( विद्या-भेषजमन्त्र-तोय-हवनै: ) विद्या, औषधि, मन्त्र, जल और हवन के द्वारा ( प्रशान्तिं याति ) पूर्ण शान्ति को प्राप्त हो जाता है—नाश को प्राप्त हो जाता है ( तद्वत् ) उसी प्रकार ( ते ) आपके ( चरणारुणाम्बुज-युग: ) दोनों चरणकमलों की ( स्तोत्र-उन्मुखानां ) स्तुति के सन्मुख जीवों के ( विघ्ना: ) समस्त/ नाना प्रकार के विघ्न ( च ) और ( काय: विनायका: ) शरीरिक बाधाएँ पीड़ाएँ या शरीर सम्बन्धी रोग आदि ( सहसा ) शीघ्र ही ( शाम्यन्ति ) शान्त हो जाते हैं ( अहो ! विस्मयः ) यह अत्यधिक आश्चर्य की बात है। ___ भावार्थ-लोक में जिस प्रकार प्रचण्ड क्रोध को प्राप्त ऐसे सर्प से डसे गये मनुष्य का असह्य, भयानक विष भी गारुड़ी विद्या या गारुड़ी मुद्रा के दिखाने से, विषनाशक नागदमनी आदि औषधियों के सेवन से, मन्त्रित किये गये जल या जिनाभिषेक के जल को लगाने से व हवन आदि उचित अनुष्ठानों के करने से दूर हो जाता है, उसी प्रकार वीतराग प्रभो ! आपके चरण-कमलों की स्तुति, भक्ति, आराधना करने से जीवों के समस्त विघ्न, बाधाएँ, शरीरिक कष्ट-वेदनाएँ शीघ्र ही नाश को प्राप्त हो जाती हैं, इसमें कोई आश्चर्य नहीं है। अर्थात् वीतराग जिनेन्द्रदेव की स्तुति करने से समस्त शारीरिक-मानसिक बाधाएँ क्षणमात्र में दूर हो जाती हैं।
प्रणाम करने का फल सन्तप्तोत्तम काश्चन क्षितिधर श्री स्पर्थि गौराते, पंसां त्वच्चरणप्रणाम करणातपीडाः प्रयान्तिक्षयं । उद्यद्भास्कर विस्फुरत्कर शतव्याघात निष्कासिता, नाना देहि विलोचन-द्युतिहरा शीघ्रं यथा शर्वरी ।। ३ ।।