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विमल ज्ञान प्रबोधिनी टीका
३७१ हो । ( निरन्तर तपोभवभावितानाम् ) अखंडत्तपश्चरण कर मोक्ष की आराधना करने वालों को ( शान्तिः ) शान्ति प्राप्त हो / कल्याण हो । ( कषायजयजूंभितवैभवानाम् ) कषायों को जीतकर आत्मिक वैभव को प्राप्त करने वालों ( शान्तिः ) समता रस की प्राप्ति हो ( स्वभावमहिमानमुपागतानाम् ) आत्मा के स्वभाव की महिमा को प्राप्त ऐसे यतियों को ( शान्तिः ) सिद्ध अवस्था प्राप्त हो/ उनका कल्याण हो ।
भावार्थ — हे शान्तिनाथ भगवान् ! जिनशासन की आज्ञा को शिरोधार्य करने वाले भव्यजीवों को शान्ति / सुख की प्राप्ति हो । अखंडरूप से तप में लीन मोक्ष के इच्छुक मुनियों को शान्तरस रूप शुक्लध्यान की प्राप्ति हो । कषायों को जीतकर आत्मानन्द को प्राप्त करने वालों को समतारसरूप शान्ति प्राप्त हो तथा जो आत्मस्वभाव की महिमा को प्राप्त कर चुके हैं ऐसे यतियों शाश्वतशान्तिरूप सिद्धपद की प्राप्ति हो ।
जीवन्तु संयम सुधारस पान तृप्ता, नंदंतु शुद्ध सहसोदय सुप्रसन्नाः ।
सिद्ध्यं सिद्धि सुख संगकृताभियोगाः,
तीव्रं तपन्तु जगतां त्रितयेऽईदाज्ञा ।। २ ।। अन्वयार्थ – ( संयम सुधारस पानतृप्ता ) संयमरूपी अमृत को पीकर तृप्त हुए मुनिवर्ग ( जीवंतु ) सदा जीवन्त रहें । ( शुद्ध सहसोदय सुप्रसन्नाः ) शुद्ध आत्मतत्त्व की जागृति से प्रसन्नता को प्राप्त मुनिजन (नन्दन्तु ) आनन्द को प्राप्त हों । ( सिद्धि सुख-संगकृताभियोगाः ) सिद्धि लक्ष्मी के सुख के लिये किया है पुरुषार्थ/उद्योग जिनने वे उसके माहात्म्य से ( सिद्धयन्तु ) सिद्धि को प्राप्त हों । (त्रितये ) तीन लोक में ( अर्हत् आज्ञा ) अर्हन्तदेव की आज्ञा उनका शासन ( जगतां ) सर्वत्र / पृथ्वीतल पर ( तीव्रं तपन्तु ) विशेष प्रभाव प्रकट हो ।
भावार्थ – हे शान्तिनाथ भगवन् ! संयमरूपी अमृत का पान करने से पूर्ण तृप्त ऐसा मुनिसमूह सदा जीवन्त रहे अर्थात् पृथ्वी पर सदा मुनिजनों का विचरण होता रहे । आत्मानन्द के उदय से सदा प्रसन्न रहने वाले यतिगण शाश्वत आनन्द को प्राप्त हों । मुक्ति लक्ष्मी की प्राप्ति के लिये उपसर्ग, परिषहों को सहनकर घोर तपश्चरण का उद्योग करने में तत्पर